SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 861
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवृत्ति-प्रवृत्ति विचार करना जरूरी है कि वास्तव में जैन परम्परा निवृत्तगामी ही है या प्रवृत्तिगामी भी है, और जैन परम्परा की दृष्टि से निवृत्ति तथा प्रवृत्ति का सच्चा माने क्या है। . उक्त प्रश्नों का उत्तर हमें जैन सिद्धान्त में से भी मिलता है और जैन परम्परा के ऐतिहासिक विकास में से भी। सैद्धान्तिक दृष्टि जैन सिद्धान्त यह है कि साधक या धर्म का उम्मेदवार प्रथम अपना दोष दूर करे, अपने आपको शुद्ध करे-तब उसकी सत् प्रवृत्ति सार्थक बन सकती है। दोष दूर करने का अर्थ है दोष से निवृत्त होना । साधक का पहला धार्मिक प्रयत्न दोष या दोषों से निवृत्त होने का ही रहता है । गुरु भी पहले उसी पर भार देते हैं । अतएव जितनी धर्म प्रतिज्ञायें या धार्मिक व्रत हैं वे मुख्यतया निवृत्ति की भाषा में हैं । गृहस्थ हो या साधु, उसकी छोटी-मोटी सभी प्रतिज्ञायें, सभी मुख्य व्रत दोष निवृत्ति से शुरू होते हैं । गृहस्थ स्थूल प्राणहिंसा, स्थूल मूषावाद, स्थूल 'परिग्रह आदि दोषों से निवृत्त होने की प्रतिज्ञा लेता है और ऐसी प्रतिज्ञा निबाहने का प्रयत्न भी करता है । जबकि साधु सब प्रकार की प्राणहिंसा श्रादि दोषों से निवृत्त होने की प्रतिज्ञा लेकर उसे निबाहने का भरसक प्रयत्न करता है। गृहस्थ और साधुओं की मुख्य प्रतिज्ञाएँ निवृत्तिसूचक शब्दों में होने से तथा दोष से निवृत्त होने का उनका प्रथम प्रयत्न होने से सामान्य समझवालों का यह खयाल बन जाना स्वाभाविक है कि जैन धर्म मात्र निवृत्तिगामी है । निवृत्ति के नाम पर अवश्यकर्त्तव्यों की उपेक्षा का भाव भी धर्म संघों में आ जाता है । इसके और भी दो मुख्य कारण हैं । एक तो मानव-प्रकृति में प्रमाद या परोपजीविता रूप विकृति का होना और दूसरा बिना परिश्रम से या अल्प परिश्रम से जीवन की जरूरतों की पूर्ति हो सके ऐसी परिस्थिति में रहना । पर जैन सिद्धान्त इतने में ही सीमित नहीं है । वह तो स्पष्टतया यह कहता है कि प्रवृत्ति करे पर आसक्ति से नहीं अथवा अनासक्ति से-दोष त्याग पूर्वक प्रवृत्ति करे । दूसरे शब्दों में वह यह कहता है कि जो कुछ किया जाय वह यतना पूर्वक किया जाय । यतना के बिना कुछ न किया जाय । यतना का अर्थ है विवेक और अनासक्ति । हम इन शास्त्राशाओं में स्पष्टतया यह देख सकते हैं कि इनमें निषेध, त्याग या निवृत्ति का जो विधान है वह दोष के निषेध का, नहीं कि प्रवृत्ति मात्र के निषेध का। यदि प्रवृत्तिमात्र के त्याग का विधान होता तो यतना-पूर्वक जीवन प्रवृत्ति करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy