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जैन धर्म और दर्शन सियों को हर एक प्रकार की अनेकान्तदृष्टि को, उसके निरूपक की भूमिका पर रहकर ही समझने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने पर हम न केवल भारतीय संस्कृति के किन्तु मानवीय संस्कृति के हर एक वर्तुल में भी एक व्यापक समन्वय का सूत्र पायेंगे।
अनेकान्त दृष्टि में से ही नयवाद तथा सप्तभंगी विचार का जन्म हुआ है। अतएव मैं नयवाद तथा सप्तभंगी बिचार के विषय में कुछ प्रकीर्ण विचार उपस्थित करता हूँ। नय सात माने जाते हैं। उनमें पहले चार अर्थनय और पिछले तीन शब्द नय हैं। महत्त्व के भिन्न-भिन्न दार्शनिक मन्तव्यों को उस-उस दर्शन के दृष्टिकोण की भूमिका पर ही नयवाद के द्वारा समझाने का तथा व्यवस्थित करने का तत्कालीन जैन आचार्यों का उद्देश्य रहा है । दार्शनिक विचारों के विकास के साथ ही जैन आचार्यों में संभवित अध्ययन के आधार पर नय विचार में भी उस विकास का समावेश किया है। यह बात इतिहास सिद्ध है। भगवान् महावीर के शुद्धिलक्षी जीवन का तथा तत्कालीन शासन का विचार करने से जान पड़ता है कि नयवाद मूल में अर्थनय तक ही सीमित होगा । जब शासन के प्रचार के साथ-साथ व्याकरण, निरुक्त, निघंटु, कोष जैसे शास्त्रान्तरों का अध्ययम बढ़ता गया तब विचक्षण प्राचार्यों ने नयवाद में शब्दस्पर्शी विचारों को भी शब्दनय रूप से स्थान दिया । संभव है शुरू में शब्दनयों में एक शब्दनय ही रहा हो। इसकी पुष्टि में यह कहा जा सकता है कि नियुक्ति में नयों की पाँच संख्या का भी एक विकल्प है।' क्रमशः शब्द नय के तीन भेद हुए जिसके उदाहरण व्याकरण, निरुक्त, कोष आदि के शब्द प्रधान विचारों से ही लिये गए हैं।
प्राचीन समय में वेदान्त के स्थान में सांख्य-दर्शन ही प्रधान था इसी से प्राचार्यों ने संग्रह नय के उदाहरण रूप से सांख्यदर्शन को लिया है। पर शंकराचार्य के बाद ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा बढ़ी, तब जैन विद्वानों ने संग्रह नय के उदाहरण रूप से ब्रह्मवाद को ही लिया है। इसी तरह शुरू में ऋजुसूत्र का उदाहरण सामान्य बौद्ध दर्शन था । पर जब उपाध्याय यशोविजयजी जैसों ने देखा कि बौद्ध दर्शन के तो वैभाषिक श्रादि चार भेद हैं तब उन्होंने उन चारों शाखाओं का ऋजुसूत्र नय में समावेश किया ।
इस चर्चा से सूचित यह होता है कि नयवाद मूल में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का संग्राहक है। अतएव उसकी संग्राहक सीमा अध्ययन व चिन्तन की वृद्धि के
१. श्रावश्यक नियुक्ति गा० ७५६
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