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________________ जैन धर्म और दर्शन उपाध्ये । दोनों संपादकों ने हिन्दी और अंग्रेजी प्रस्तावना में मूलसम्बद्ध अनेक ज्ञातव्य विषयों की सुविशद चर्चा की है। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अपने कई प्रकाशनों से सुविदित है । मैं इसके नए प्रकाशनों के विषय में कहूँगा। पहला है 'न्यायविनिश्चय विवरण' प्रथम भाग। इसके संपादक हैं प्रसिद्ध पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य । अकलंक के मूल और वादिराज के विवरण को अन्य दर्शनों के साथ तुलना करके संपादक ने ग्रन्थ का महत्त्व बढ़ा दिया है । ग्रन्थ की प्रस्तावना में संपादक ने स्याद्वादसंबन्धी विद्वानों के भ्रमों का निरसन करने का प्रयत्न किया है । उन्हीं का दूसरा संपादन है तत्त्वार्थ की 'श्रुतसागरी टीका'। उसकी प्रस्तावना में अनेक ज्ञातव्य विषयों की चर्चा सुविशद रूप से की गई है। खास कर 'लोक वर्णन और भूगोल' संबन्धी भाग बड़े महत्त्व का है। उसमें उन्होंने जैन, बौद्ध, वैदिक परंपरा के मन्तव्यों की तुलना की है । ज्ञानपीठ का तीसरा प्रकाशन है---'समयसार' का अंग्रेजी अनुवाद । इसके संपादक हैं वयोवृद्ध विद्वान् प्रो० ए. चक्रवर्ती । इस ग्रन्थ की भूमिका जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण विषयों से परिपूर्ण है । पर उन्होंने शंकराचार्य पर कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र के प्रभाव की जो संभावना की है वह चिन्त्य है। इसके अलावा 'महापुराण' का नया संस्करण हिन्दी अनुवाद के साथ भी प्रकाशित हुआ है । अनुवादक हैं श्री पं० पन्नालाल, साहित्याचार्य । संस्कृतप्राकृत छन्दःशास्त्र के सुविद्वान् प्रो० एच० डी० वेलणकर ने सभाष्य 'रत्नमंजूषा' का संपादन किया है । इस ग्रन्थ में उन्होंने टिप्पण भी लिखा है। श्राचार्य श्री मुनि जिनविजय जी के मुख्य संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली 'सिंघी जैन ग्रन्थ माला' से शायद ही कोई विद्वान् अपरिचित हो। पिछले वर्षों में जो पुस्तके प्रसिद्ध हुई हैं उनमें से कुछ का परिचय देना आवश्यक है। 'न्यायावतार वार्तिक-वृत्ति' यह जैन न्याय विषयक ग्रन्थ है। इसमें मूल कारिकाएँ सिद्धसेन कृत हैं। उनके ऊपर पद्यबद्ध वार्तिक और उसकी गद्य वृत्ति शान्त्याचार्य कृत हैं। इसका संपादन पं० दलसुख मालवणिया ने किया है । संपादक ने जो विस्तृत भूमिका लिखी है उसमें आगम काल से लेकर एक हजार वर्ष तक के जैन दर्शन के प्रमाण, प्रमेय विषयक चिन्तन का ऐतिहासिक व तुलनात्मक निरूपण है । ग्रन्थ के अन्त में सम्पादक ने अनेक विषयों पर टिप्पण लिखे हैं जो भारतीय दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन करने वालों के लिए ज्ञातव्य हैं। १. देखो, प्रो० विमलदास कृत समालोचना; ज्ञानोदय-सितम्बर १६५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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