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जैन धर्म और दर्शन
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सम्प्रदायवार जमाना इष्ट था तब क्रमविकास शब्द के प्रयोग की क्या जरूरत थी ?
ऊपर की सूचना मैं इसलिये करता हूँ कि आयंदा अगर ऐतिहासिक दृष्टि से और क्रमविकास दृष्टि से कुछ भी निरूपण करना हो तो उसके महत्त्व की ओर विशेष ख्याल रहे। परंतु ऐसी मामूली और अगण्य कमी के कारण प्रस्तुत टिप्पणियों का महत्त्व कम नहीं होता।
अंत में दिगम्बर परंपरा के सभी निष्णात और उदार पंडितों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे अब विशिष्ट शास्त्रीय अध्यवसाय में लगकर सर्वसंग्राह्य. हिंदी अनुवादों की बड़ी भारी कमी को जल्दी से जल्दी दूर करने में लग जाएँ और प्रस्तुत कुमुदचन्द्र को भी भुला देने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संस्करण तैयार करें।
विद्याप्रिय और शास्त्रभक्त दिगंबर धनिकों से मेरा अनुरोध है कि वे ऐसे कार्यों में पंडित-मंडली को अधिक से अधिक सहयोग दें।
न्याय कुमुदचन्द्र के छपे ४०२ पेज, अर्थात् मूल मात्र पहला भाग मेरे सामने है। केवल उसो को देखकर मैंने अपने विचार लिखे हैं । यद्यपि जैन परम्परा के स्थानकवासी और श्वेताम्बर फिरकों के साहित्य तथा तविषयक मनोवृत्ति , के चढ़ाव-उतार के संबंध में भी कुछ कहने योग्य है । इसी तरह ब्राह्मण परम्परा की साहित्य विषयक मनोवृत्ति के जुदे-जुदे रूप भी जानने योग्य हैं। फिर भी मैंने यहाँ सिर्फ दिगम्बर परम्परा को ही लक्ष्य में रखकर लिखा है। क्योंकि यहाँ वही प्रस्तुत है और ऐसे संक्षिप्त प्राक्कथन में अधिक चर्चा की कोई गुंजाइश भी नहीं। ई० १६३८]
[ न्यायकुमुदचन्द्र का प्राक्कथन
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