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जैन धर्म और दर्शन
प्रेमीजी का तकाजा था कि मदद मैं यथासंभव करूँगा पर इसका सन्मति जैसा संस्करण निकालो ही । इधर एक साथ अनेक बड़े काम जिम्मे न लेने की मनोवृत्ति । इस द्वंद में दस वर्ष बीत गए । मैंने इस बीच में दो बार प्रयत्न भी किये पर वे सफल न हुए । एक उद्देश्य मेरा यह रहा कि कुमुदचन्द्र जैसे दिगम्बरीय ग्रन्थों के संस्करण के समय योग्य दिगम्बर पंडितों को ही सहचारी बनाऊँ जिससे फिर उस परंपरा में भी स्वावलंबी चक्र चलता रहे। इस धारणा से अहमदाबाद में दो बार अलग-अलग से, दो दिगम्बर पंडितों को भी, शायद सन् १६२६-२७ के आसपास, मैंने बुलाया पर कामयाबी न हुई । वह प्रयत्न उस समय वहीं रहा, पर प्रेमीजी के तकाज़े और निजी संकल्प के वश उसका परिपाक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया, जिसे मूर्त करने का अवसर १६३३ की जुलाई में काशी पहुँचते ही दिखाई दिया ।
पं० कैलाशचन्द्रजी तो प्रथम से ही मेरे परिचित थे, पं० महेन्द्रकुमारजी का परिचय नया हुआ । मैंने देखा कि ये दोनों विद्वान् 'कुमुद' का कार्य करें तो उपयुक्त समय और सामग्री है। दोनों ने बड़े उत्साह से काम को अपनाया और उधर से प्रेमीजी ने कार्यसाधक आयोजन भी कर दिया, जिसके फलस्वरूप यह प्रथम भाग सके सामने उपस्थित है ।
इसे तैयार करने में पंडित महाशयों ने कितना और किस प्रकार का श्रम किया है उसे सभी अभिज्ञ अभ्यासी आप ही आप जान सकेंगे । श्रतएव मैं उस पर कुछ न कहकर सिर्फ प्रस्तुत भाग गत टिप्पणियों के विषय में कुछ कहना उपयुक्त समझता हूँ ।
मेरी समझ में प्रस्तुत टिप्पणियाँ दो दृष्टि से की गई हैं । एक तो यह कि ग्रन्थकार ने जिस-जिस मुख्य और गौण मुद्दे पर जैनमत दर्शाते हुए अनुकूल या प्रतिकूल रूप से जैनेतर बौद्ध ब्राह्मण परम्पराओं के मतों का निर्देश व संग्रह किया है वे मत और उन मतों की पोषक परम्पराएँ उन्हीं के मूलभूत ग्रन्थों से बतलाई जाएँ ताकि अभ्यासी ग्रन्थकार की प्रामाणिकता जानने के अलावा यह भी सविस्तर जान सकें कि अमुक मत या उसकी पोषक परंपरा किन मूल ग्रंथों पर अवलंबित है और उसका असली भाव क्या है ? इस जानकारी से अभ्यासशील विद्यार्थीपंडित प्रभाचन्द्र वर्णित दर्शनान्तरीय समस्त संक्षिप्त मुद्दों को अत्यन्त स्पष्टता - पूर्वक समझ सकेंगे और अपना स्वतंत्र मत भी बाँध सकेंगे। दूसरी दृष्टि टिप्पणियों के विषय में यह रही है कि प्रत्येक मन्तव्य के तात्त्विक और साहित्यिक इतिहास की सामग्री उपस्थित की जाय जो तत्त्वज्ञ और ऐतिहासिक दोनों के संशोधन कार्य में आवश्यक है ।
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