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जैन धर्म और दर्शन है कि अन्य वादों का खण्डन करके क्रमवाद का समर्थन करने वाला तथा अन्य वादों का खण्डन करके अभेदवाद का समर्थन करने वाला स्वतंत्र साहित्य मौजूद है जो अनुक्रम से जिनभद्रगणि तथा सिद्धसेन दिवाकर का रचा हुआ है। अन्य वादों का खण्डन करके एकमात्र युगपद् वाद का अंत में स्थापन करने वाला कोई स्वतंत्र ग्रन्थ अगर है तो वह श्वेताम्बरीय परंपरा में नहीं पर दिगम्बरीय परंपरा में है।
(१०) ग्रन्थकार का तात्पर्य तथा उनकी स्वोपज्ञ विचारणा उपाध्यायजी के द्वारा निर्दिष्ट विप्रतिपत्तियों के पुरस्कर्ता के बारे में जो कुछ कहना था उसे समाप्त करने के बाद अन्त में दो बातें कहना है।
(१) उक्त तीन वादों के रहस्य को बतलाने के लिए उपाध्यायजी ने जिनभद्रगणि के किसी ग्रंथ को लेकर ज्ञानबिन्दु में उसकी व्याख्या क्यों नहीं की
और दिवाकर के सन्मतितर्कगत उक्त वाद वाले भाग को लेकर उसकी व्याख्या क्यों की ? हमें इस पसंदगी का कारण यह जान पड़ता है कि उपाध्यायजी को तीनों वादों के रहस्य को अपनी दृष्टि से प्रकट करना अभिमत था फिर भी उनकी तार्किक बुद्धि का अधिक झुकाव अवश्य अभेदवाद की ओर रहा है। ज्ञानबिन्दु में पहले भी जहाँ मति-श्रुत और अवधि-मनःपर्याय के अभेद का प्रश्न
आया वहाँ उन्होंने बड़ी खूबी से दिवाकर के अभेदमत का समर्थन किया है । यह सूचित करता है कि उपाध्यायजी का मुख्य निजी तात्पर्य अभेद पक्ष का ही है । यहाँ यह भी ध्यान में रहे कि सन्मति के ज्ञानकाण्ड की गाथाओं की व्याख्या करते समय उपाध्यायजी ने कई जगह पूर्व व्याख्याकार अभयदेव के विवरण की समालोचना की है और उसमें त्रुटियाँ बतलाकर उस जगह खुद नए ढंग से व्याख्यान भी किया है।
(२) [ १७४ ] दूसरी बात उपाध्यायजी की विशिष्ट सूझ से संबंध रखती है, वह यह कि ज्ञानबिन्दु' के अन्त में उपाध्यायजी ने प्रस्तुत तीनों वादों का नयभेद की अपेक्षा से समन्वय किया है जैसा कि उनके पहले किसी को सूझा हुआ जान नहीं पड़ता । इस जगह इस समन्वय को बतलाने वाले पद्यों का तथा इसके बाद दिये गए ज्ञानमहत्त्वसूचक पद्य का सार देने का लोभ हम संवरण कर नहीं सकते । सबसे अन्त में उपाध्यायजी ने अपनी प्रशस्ति दी है जिसमें खुद अपना तथा अपनी गुरु परंपरा का वही परिचय है जो उनकी अन्य कृतियों की प्रशस्तियों में भी पाया जाता है । सूचित पद्यों का सार इस प्रकार है
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१ देखो ज्ञानबिन्दु की कंडिकाएँ ६१०४,१०५,१०६,११०,१४८,१६५ ।
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