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श्रुति-स्मृति की जैनानुकूल व्याख्या
४३६. विलास है. अतएव असत्य है । उपाध्यायजी मौके-मौके पर जैन दर्शन को यथार्थता ही साबित करना चाहते हैं । अतएव उन्होंने पूर्वाचार्य हरिभद्र की प्रसिद्ध उक्ति, [ज्ञानबिन्दु पृ० १.२६ ] जिसमें पृथ्वी श्रादि बाह्य तत्त्वों की तथा रागादिदोषरूप आन्तरिक वस्तुओं की वास्तविकता का चित्रण है, उसका हवाला देकर वेदान्त की उपर्युक्त अज्ञानशक्ति-प्रक्रिया का खण्डन किया है। . इस जगह वेदांत की उपर्युक्त अज्ञानगत त्रिविध शक्ति की त्रिविध सृष्टि वाली प्रक्रिया के साथ जैनदर्शन की त्रिविध अात्मभाव वाली प्रक्रिया की तुलना की जा सकती है।
जैन दर्शन के अनुसार बहिरात्मा, जो मिथ्यादृष्टि होने के कारण तीब्रतम कषाय और तीब्रतम अज्ञान के उदय से युक्त है अतएव जो अनात्मा को आत्मा मानकर सिर्फ उसी में प्रवृत्त होता है, वह वेदांतानुसारी आद्यशक्तियुक्त अज्ञान के बल से प्रपञ्च में पारमार्थिकत्व की प्रतीति करनेवाले के स्थान में है। जिस को जैन दर्शन अंतरात्मा अर्थात् अन्य वस्तुओं के अहंत्व-ममत्व की ओर से उदासीन होकर उत्तरोत्तर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होने की ओर बढ़नेवाला कहता है, वह वेदान्तानुसारी अज्ञानगत दूसरी शक्ति के द्वारा व्यावहारिकसत्त्वप्रतीति करनेवाले व्यक्ति के स्थान में है। क्योंकि जैनदर्शन संमत अंतरास्मा उसी तरह आत्मविषयक श्रवण-मनन निदिध्यासन वाला होता है, जिस तरह वेदान्त संमत व्यावहारिकसत्त्वप्रतीति वाला ब्रह्म के श्रवण-मनन निदिध्यासन में। जैनदर्शनसंमत परमात्मा जो तेरहवें गुणस्थान में वर्तमान होने के कारण द्रव्य मनोयोग वाला है वह वेदान्तसंमत अज्ञानगत तृतीयशक्तिजन्य प्रतिभासिकसत्त्वप्रतीति वाले व्यक्ति के स्थान में है। क्योंकि वह अज्ञान से सर्वथा मुक्त होने पर भी दग्धरज्जुकल्प भवोपग्रहिकर्म के संबंध से वचन आदि में प्रवृत्ति करता है। जैसा कि प्रातिभासिकसत्त्वप्रतीति वाला व्यक्ति ब्रह्मसाक्षात्कार होने पर भी प्रपञ्च का प्रतिभास मात्र करता है । जैन दर्शन, जिसको शैलेशी अवस्थाप्राप्त आत्मा या मुक्त आत्मा कहता है वह वेदान्त संमत अज्ञानजन्य त्रिविध सृष्टि से पर अंतिमबोध वाले व्यक्ति के स्थान में है । क्योंकि उसे अब मन, वचन, कार्य का कोई विकल्पप्रसंग नहीं रहता, जैसा कि वेदान्तसंमत अंतिम ब्रह्मबोध वाले को प्रपञ्च में किसी भी प्रकार की सत्त्वप्रतीति नहीं रहती।
(७) श्रुति और स्मृतियों का जैनमतानुकूल व्याख्यान [८८] वेदान्तप्रक्रिया की समालोचना करते समय उपाध्यायजी ने वेदान्तसंमत वाक्यों में से ही जैनसंमत प्रक्रिया फलित करने का भी प्रयत्न किया है।
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