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________________ ब्रह्मज्ञान का निरास ४३७ उपाध्यायजी जैन दृष्टि के अनुसार विवेकभावना के अवलंबी हैं। यद्यपि विवेकभावना के अवलंबी सांख्य-योग तथा न्याय-वैशेषिक के साथ जैन दर्शन का थोड़ा मतभेद अवश्य है फिर भी उपाध्यायजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में नैरात्म्यभावना ओर ब्रह्मभावना के ऊपर ही खास तौर से प्रहार करना चाहा है । इसका सबब यह है कि सांख्य-योगादिसंमत विवेकभावना जैनसंमत विवेकभावना से उतनी दूर या विरुद्ध नहीं जितनी कि नैरात्म्यभावना और ब्रह्मभावना है। नैराम्यभावना के खण्डन में उपाध्यायजी ने खासकर बौद्धसंमत क्षणभंग वाद का ही खण्डन किया है। उस खण्डन में उनकी मुख्य दलील यह रही है कि एकान्त क्षणिकत्व वाद के साथ बन्ध और मोक्ष की विचारसरणि मेल नहीं खाती है। यद्यपि उपाध्यायजी ने जैसा नैरात्म्यभावना का नामोल्लेखपूर्वक खण्डन किया है वैसा ब्रह्मभावना का नामोल्लेखपूर्वक खण्डन नहीं किया है, फिर भी उन्होंने आगे जाकर अति विस्तार से वेदांतसंमत सारी प्रक्रिया का जो खण्डन किया है उसमें ब्रह्मभावना का निरास अपने आप ही समा जाता है । (६) ब्रह्मज्ञान का निरास [७३ ] क्षणभंग वाद का निरास करने के बाद उपाध्यायजी अद्वैतवादिसंमत ब्रह्मज्ञान, जो जैनदर्शनसंमत केवलज्ञान स्थानीय है, उसका खण्डन शुरू करते हैं। मुख्यतया मधुसूदन सरस्वती के ग्रंथों को ही सामने रखकर उनमें प्रतिपादित ब्रह्मज्ञान की प्रक्रिया का निरास करते हैं। मधुसूदन सरस्वती शाङ्कर वेदान्त के असाधारण नव्य विद्वान् हैं; जो ईसा की सोलहवीं शताब्दी में हुए हैं । अद्वतसिद्धि, सिद्धान्ताबन्दु, वदान्तकल्पलातका आदि अनेक गंभीर और विद्वन्मान्य ग्रन्थ उनके बनाए हुए हैं। उनमें से मुख्यतया वेदान्तकल्पलतिका का उपयोग प्रस्तुत ग्रंथ में उपाध्यायजी ने किया है । मधुसूदन सरस्वती ने वेदान्तकल्पलतिका में जिस विस्तार से और जिस परिभाषा में ब्रह्मसान का वर्णन किया है उपाध्यायजी ने ठीक उसी विस्तार से उसी परिभाषा में प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में खण्डन किया है । शाङ्करसंमत अद्वैत ब्रह्मज्ञानप्रक्रिया का विरोध सभी द्वैतवादी दर्शन एक सा करते हैं । उपाध्यायजी ने भी वैसा ही विरोध किया है पर पर्यवसान में थोड़ा सा अन्तर है । वह यह कि जब दूसरे द्वैतवादी अद्वैतदर्शन के बाद अपना-अपना अभिमत द्वैत स्थापना क.ते हैं, तब उपाध्यायजी ब्रह्मज्ञान के खण्डन के द्वारा जैनदर्शनसंमत द्वैत-प्रक्रिया का ही स्पष्टतया स्थापना करते १ देखो, ज्ञानबिंदु टिप्पण पृ० १०६, पं० ६ तथा १११. पं. ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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