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जैन धर्म औरद र्शन परंपरा में प्रसिद्ध पञ्च स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है । वेदान्त दर्शन 'सर्द शब्द से अपनी परंपरा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एक मात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है। जैन दर्शन भी 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध सपर्याय षड् द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी • दर्शन अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार माने जानेवाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तदनुसारी लक्षण भी करते हैं ।, पर इस लक्षणगत उक्त सर्वविषयकत्व तथा साक्षात्कारत्व के विरुद्ध मीमांसक की सख्त आपत्ति है।
मीमांसक सर्वज्ञवादियों से कहता है कि अगर सर्वज्ञ का तुम लोग नीचे लिखे पाँच अर्थों में से कोई भी अर्थ करो तो तुम्हारे विरुद्ध मेरी आपत्ति नहीं। अगर तुम लोग यह कहो कि-सर्वज्ञ का मानी है 'सर्व' शब्द को जाननेवाला (१); या यह कहो कि-सर्वज्ञ शब्द से हमारा अभिप्राय है तेल, पानी आदि किसी एक चीज को पूर्ण रूपेण जानना (२); या यह कहो कि-सर्वज्ञ शब्द से हमारा मतलब है सारे जगत को मात्र सामान्यरूपेण जानना (३); या यह कहो कि-सर्वज्ञ शब्द का अर्थ है हमारी अपनी-अपनी परंपरा में जो-जो तत्त्व शास्त्र सिद्ध हैं उनका शास्त्र द्वारा पूर्ण ज्ञान । ४); या यह कहो कि - सर्वज्ञ शब्द से हमारा तात्पर्य केवल इतना ही है कि जो-जो वस्तु, जिस-जिस प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाण गम्य है उन सब वस्तुओं को उनके ग्राहक सब प्रमाणों के द्वारा यथासंभव जानना (५); वही सर्वज्ञत्व है। इन पाँचों में से तो किसी पक्ष के सामने मीमांसक की आपत्ति नहीं; क्योंकि मीमांसक उक्त पाँचों पक्षों के स्वीकार के द्वारा फलित होनेवाला सर्वज्ञत्व मानता ही है। उसकी आपत्ति है तो इस पर कि ऐसा कोई साक्षात्कार (प्रत्यक्ष) हो नहीं सकता जो जगत् के संपूर्ण पदार्थों को पूर्णरूपेण क्रम से या युगपत् जान सके । मीमांसक को साक्षात्कारत्व मान्य है, पर वह असर्वविषयक ज्ञान में। उसे सर्वविषयकत्व भी अभिप्रेत है, पर वह शास्त्रजन्य परोक्ष ज्ञान ही में।
इस तरह केवलज्ञान के स्वरूप के विरुद्ध सबसे प्रबल और पुरानी आपत्ति उठानेवाला है मीमांसक । उसको सभी सर्वज्ञवादियों ने अपने-अपने ढंग से जवाब दिया है। उपाध्यायजी ने भी केवलज्ञान के स्वरूप का परिष्कृत लक्षण करके, उस विषय में मीमांसक संमत स्वरूप के विरुद्ध ही जैन मन्तव्य है, यह बात बतलाई है।
यहाँ प्रसंगवश एक बात और भी जान लेनी जरूरी है। वह यह कि यद्यपि
१ देखो, तत्त्वसंग्रह, का० ३१२६ से।
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