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कहता है, कोई ब्रह्म-साक्षात्कार और कोई ईश्वर दर्शन, पर इससे वस्तुमें अन्तर नहीं पड़ता । हमने ऊपर के वर्णनमें यह बतलाने की चेष्टा की है कि मोहजनित भावोंकी पेक्षा जीवन शक्तिके यथार्थ अनुभवका भाव कितना और क्यों श्रेष्ठ है और उससे प्रेरित कर्तव्य-दृष्टि या उत्तरदायित्व कितना श्रेष्ठ है । जो वसुधाको कुटुम्ब समझता है, वह उसी श्रेष्ठ भावके कारण । ऐसा भाव केवल शब्दोंसे श्री नहीं सकता । वह भीतरसे उगता है और वही मानवीय पूर्ण विकासका मुख्य साधन है । उसीके लाभके निमित्त अध्यात्म शास्त्र है, योगमार्ग है, और उसकी साधना में मानव जीवनकी कृतार्थता है ।
ई० १६५० ]
[ संपूर्णानन्द - अभिनन्दन ग्रन्थ
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