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जैन धर्म और दर्शन
के मन्तव्यों के अवतरण भी दिये हैं । यद्यपि ग्रन्थकार ने आगे जाकर 'सम्मति' की अनेक गाथाओं को लेकर ( पृ० ३३ ) उनका क्रमशः स्वयं व्याख्यान भी किया है, फिर भी वस्तुतः उन गाथाओं को लेना तथा उनका व्याख्यान करना प्रासंगिक मात्र है । जब केवलज्ञान के निरूपण का प्रसंग आया और उस संबंध में आचार्यों के मतभेदों पर कुछ लिखना प्राप्त हुआ, तब उन्होंने सन्मतिगत कुछ महत्त्व की गाथाओं को लेकर उनके व्याख्यान रूप से अपना विचार प्रकट कर दिया है। खुद उपाध्यायजी ने ही 'एतच्च तत्त्वं सयुक्तिकं सम्मतिगाथाभिरेव प्रदर्शयाम:' ( पृ० ३३ ) कहकर वह भाव स्पष्ट कर दिया है । उपाध्यायजी ने 'अनेकान्त व्यवस्था' आदि अनेक प्रकरण ग्रंथ लिखे हैं जो ज्ञानबिंदु के समान वर्णन शैली के हैं। इस शैली का अवलम्बन करने की प्रेरणा करनेवाले वेदान्तकल्पलतिका, वेदान्तसार, 'न्यायदीपिका' आदि अनेक वैसे ग्रंथ थे जिनका उन्होंने उपयोग भी किया है ।
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ग्रन्थ का आभ्यन्तर स्वरूप
ग्रंथ के आभ्यन्तर स्वरूप का पूरा परिचय तो तभी संभव है जब उस का अध्ययन – अर्थग्रहण और ज्ञात अर्थ का मनन - पुनः पुनः चिन्तन किया जाए। फिर भी इस ग्रंथ के जो अधिकारी हैं उन की बुद्धि को प्रवेशयोग्य तथा रुचिसम्पन्न बनाने की दृष्टि से यहाँ उस के विषय का कुछ स्वरूपवर्णन करना जरूरी है । ग्रंथकार ने ज्ञान के स्वरूप को समझाने के लिए जिन मुख्य मुख्य मुद्दों पर चर्चा की है और प्रत्येक मुख्य मुद्दे की चर्चा करते समय प्रासंगिक रूप से जिन दूसरे मुद्दों पर भी विचार किया है, उन मुद्दों का यथासंभव दिग्दर्शन कराना इस जगह इष्ट है । हम ऐसा दिग्दर्शन कराते समय यथासम्भव तुलनात्मक र ऐतिहासिक दृष्टि का उपयोग करेंगे जिससे अभ्यासीगण ग्रन्थकार द्वारा चर्चित मुद्दों को और भी विशालता के साथ अवगाहन कर सकें तथा ग्रंथ के अंत में जो टिप्पण दिये गए हैं उनका हार्द समझने की एक कुंजी भी पा सकें । प्रस्तुत वर्णन में काम में लाई जाने वाली तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक दृष्टि यथासंभव परिभाषा, विचार और साहित्य इन तीन प्रदेशों तक ही सीमित रहेगी ।
१. ज्ञान की सामान्य चर्चा
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की पीठिका रचते समय उस के विषयभूत ज्ञान की ही सामान्य रूप से पहले चर्चा की है, जिसमें उन्हों ने दूसरे अनेक मुद्दों पर शास्त्रीय प्रकाश डाला है । वे मुद्दे ये हैं
१. ज्ञान सामान्य का लक्षण
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