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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय ३८३ देखते हैं कि यह विरोध सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन के अभेदवाले मुद्दे पर ही हुआ है । बाकी के मुद्दों पर या तो किसी ने विचार ही नहीं किया या सभी ने उपेक्षा धारण की। पर जब हम प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु से उन्हीं मुद्दों पर उपाध्यायजी का ऊहापोह देखते हैं तब कहना पड़ता है कि उतने प्राचीन युग में भी, सिद्धसेन की वह तार्किकता और सूक्ष्म दृष्टि जैन साहित्य को अद्भुत देन थी। दिवाकर ने इन चार मुद्दों पर के अपने विचार निश्चयद्वात्रिंशका' तथा 'सन्मतिप्रकरण' में प्रकट किए हैं। उन्होंने ज्ञान के विचारक्षेत्र में एक और भी नया प्रस्थान शुरू किया। संभवतः दिवाकर के पहले जैन परंपरा में कोई न्याय विषय का-अर्थात् परार्थानुमान और तत्संबन्धी पदार्थनिरूपक-विशिष्ट ग्रंथ न था । जब उन्होंने अभाव की पूर्ति के लए 'न्यायावतार' बनाया तब उन्होंने जैन परंपरा में प्रमाणविभाग पर नए सिरे से पूर्निविचार प्रकट किया । आर्यरक्षितस्वीकृत न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाणविभाग को जैन परंपरा में गौण स्थान दे कर, नियुक्तिकारस्वीकृत द्विविध प्रमाण विभाग को प्रधानता देने वाले वाचक के प्रयत्न का जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं। सिद्धसेन ने भी उसी द्विविध' प्रमाण विभाग की भूमिका के ऊपर 'न्यायावतार' की रचना की और उस प्रत्यक्ष और परोक्ष-प्रमाणद्वय द्वारा तीन २प्रमाणों को जैन परंपरा में सर्व प्रथम स्थान दिया, जो उनके पूर्व बहुत समय से, सांख्य दर्शन तथा वैशेषिक दर्शन में सुप्रसिद्ध थे और अब तक भी हैं। सांख्य और वैशेषिक दोनों दर्शन जिन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम-इन तीन प्रमाणों को मानते आए हैं, उनको भी अब एक तरह से, जैन परम्परा में स्थान मिला, जो कि वादकथा और परार्थानुमान की दृष्टि से १ देखो, न्यायावतार, श्लो० १ । २ यद्यपि सिद्धसेन ने प्रमाण का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से द्विविध विभाग किया है किन्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, और शब्द इन तीनों का पृथक् पृथक् लक्षण किया है । ३ सांख्यकारिका, का० ४ । ४ प्रमाण के भेद के विषय में सभी वैशेषिक एकमत नहीं। कोई उसके दो भेद तो कोई उसके तीन भेद मानते हैं । प्रशस्तपादभाष्य में (पृ० २१३) शाब्द प्रमाण का अन्तर्भाव अनुमान में है । उसके टीकाकार श्रीधर का भी वही मत है ( कंदली, पृ० २१३) किन्तु व्योमशिव को वैसा एकान्त रूप से इष्ट नहीं-देखो व्योमवती, पृ० ५७७, ५८४ । अतः जहाँ कहीं वैशेषिकसंमत तीन, प्रमाणों का उल्लेख हो वह व्योमशिव का समझना चाहिए-देखो, न्यायावतार टीकाटिप्पण, प० ६ तथा प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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