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भी प्रवृत्ति क्यों न करें, मन कहीं भी गति क्यों न करे, देह किसी भी व्यापारका क्यों न आचरण करे, पर उस सबका सतत भान किसी एक शक्तिको थोड़ा बहुत होता ही रहता है । हम प्रत्येक अवस्थामें अपनी दैहिक, ऐन्द्रिक और मानसिक क्रियासे जो थोड़े बहुत परिचित रहा करते हैं, सो किस कारण से १ जिस कारण से हमें अपनी क्रियाओं का संवेदन होता है वही चेतना शक्ति है और हम इससे अधिक या कम कुछ भी नहीं हैं । और कुछ हो या न हो, पर हम चेतनाशून्य कभी नहीं होते । चेतना के साथ ही साथ एक दूसरी शक्ति तप्रोत है जिसे हम संकल्प शक्ति कहते हैं । चेतना जो कुछ समझती सोचती है उसको क्रियाकारी बनानेका या उसे मूर्तरूप देनेका चेतना के साथ अन्य कोई बल न होता तो उसकी सारी समझ बेकार होती और हम जहाँ के सहाँ बने रहते । हम अनुभव करते हैं कि समझ, जानकारी या दर्शनके अनुसार यदि एक बार संकल्प हुआ तो चेतना पूर्णतया कार्याभिमुख हो जाती है । जैसे कूदनेवाला संकल्प करता है तो सारा बल संचित होकर उसे कुदा डालता है । संकल्प शक्तिका कार्य है बलको बिखरने से रोकना । संकल्प से संचित बल संचितभा के बल जैसा होता है । संकल्पकी मदद मिली कि चेतना गतिशील हुई और फिर अपना साध्य सिद्ध करके ही संतुष्ट हुई । इस गतिशीलताको चेतनाका वीर्य समझना चाहिए । इस तरह जीवन-शक्ति के प्रधान तीन अंश हैं - चेतना, संकल्प और वीर्य या बल । इस त्रिभ्रंशी शक्तिको ही जीवन-शक्ति समझिए, जिसका अनुभव हमें प्रत्येक छोटे बड़े सर्जन - कार्य में होता है । अगर समझ न हो, संकल्प न हो और पुरुषार्थ - वीर्यगति - न हो तो कोई भी सर्जन नहीं हो सकता । ध्यानमें रहे कि जगतमें ऐसा कोई छोटा-बड़ा जीवनधारी नहीं है जो किसी न किसी प्रकार सर्जन न करता हो। इससे प्राणीमात्र में उक्त त्रिगी जीवन शक्तिका पता चल जाता है । यों तो जैसे हम अपने आपमें प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं वैसे ही अन्य प्राणियोंके सर्जन - कार्य से भी उनमें मौजूद उस शक्तिका अनुमान कर सकते हैं । फिर भी उसका अनुभव और सो भी यथार्थ अनुभव, एक अलग वस्तु है ।
यदि कोई सामने खड़ीं दीवालसे इन्कार करे, तो हम उसे मानेंगे नहीं । हम तो उसका अस्तित्व ही अनुभव करेंगे । इस तरह अपने में और दूसरोंमें मौजूद उस त्रिशी शक्तिके अस्तित्वका, उसके सामर्थ्यका अनुभव करना जीवन-शक्तिका यथार्थ अनुभव है ।
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जब ऐसा अनुभव प्रकट होता है तब अपने आपके प्रति और दूसरों के प्रति जीवन-दृष्टि बदल जाती है । फिर तो ऐसा भाव पैदा होता है कि सर्वत्र त्रिशी
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