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________________ ३७६ ज्ञानबिन्दुपरिचय अवधि, मनःपर्याय और केवल ये पाँच नाम ज्ञानविभाग सूचक फलित होते हैं। जब कि आगमिक परम्परा के अनुसार मति के स्थान में 'अभिनिबोध नाम है। बाकी के अन्य चारों नाम कार्मग्रन्थिक परम्परा के समान ही हैं। इस तरह जैन परम्परागत पञ्चविध ज्ञानदर्शक नामों में कार्मग्रन्थिक और आगमिक परम्परा के अनुसार प्रथम ज्ञान के बोधक 'मति' और 'अभिनिबोध' ये दो नाम समानार्थक या पर्याय रूप से फलित होते हैं। बाकी के चार ज्ञान के दर्शक श्रुत, अवधि आदि चार नाम उक्त दोनों परम्परात्रों के अनुसार एक-एक ही हैं। उनके दूसरे कोई पर्याय असली नहीं हैं। ___ स्मरण रखने की बात यह है कि जैन परम्परा के सम्पूर्ण साहित्य ने, लौकिक और लोकोत्तर सब प्रकार के ज्ञानों का समावेश उक्त पञ्चविध विभाग में से किसी न किसी विभाग में, किसी न किसी नाम से किया है। समावेश का यह प्रयत्न जैन परम्परा के सारे इतिहास में एक-सा है। जब-जब जैनाचार्यों को अपने आप किसी नए ज्ञान के बारे में, या किसी नए ज्ञान के नाम के बारे में प्रश्न पैदा हुआ, अथवा दर्शनान्तरवादियों ने उनके सामने वैसा कोई प्रश्न उपस्थित किया, तब-तब उन्होंने उस ज्ञान का या ज्ञान के विशेष नाम का समावेश उक्त ' पञ्चविध विभाग में से, यथासंभव किसी एक या दूसरे विभाग में, कर दिया है। अब हमें आगे यह देखना है कि उक्त पञ्चविध ज्ञान विभाग की प्राचीन जैन भूमिका के आधार पर, क्रमशः किस-किस तरह विचारों का विकास हुआ । जान पड़ता है, जैन परम्परा में ज्ञान संबन्धी विचारों का विकास दो मार्गों से हुआ है । एक मार्ग तो है स्वदर्शनाभ्यास का और दूसरा है दर्शनान्तराभ्यास का । दोनों मार्ग बहुधा परस्पर संबद्ध देखे जाते हैं । फिर भी उनका पारस्परिक भेद स्पष्ट है, जिसके मुख्य लक्षण ये हैं-स्वदर्शनाभ्यासजनित विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को अपनाने का प्रयत्न नहीं है। न परमतखण्डन का प्रयत्न है और न जल्प एवं वितण्डा कथा का कभी अवलम्बन ही है। उसमें अगर कथा है तो वह एकमात्र तत्त्वबुभुत्सु कथा अर्थात् वाद ही है। जब कि दर्शनान्तराभ्यास के द्वारा हुए ज्ञान विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को आत्मसात् करने का प्रयत्न अवश्य है। उसमें परमत खण्डन के साथ-साथ कभी-कभी जल्पकथा का भी अवलम्बन अवश्य देखा जाता है। इन लक्षणों को ध्यान में रखकर, ज्ञानसंबन्धी जैन विचार-विकास का जब हम अध्ययन करते हैं, १ नन्दी सूत्र, सू० १। आवश्यक नियुक्ति, गा० १। षर्खडागम, पु० १. पृ० ३५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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