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प्रमाणशास्त्र को देन का उपयोग करके ही स्थापित किया और सर्वव्यापक रूप से कह दिया कि वस्तु मात्र परिणामी नित्य है । नित्यता के ऐकान्तिक अाग्रह की धुन में अनुभव सिद्ध अनित्यता का इनकार करने की अशक्यता देखकर कुछ तत्त्व-चिंतक गुण, धर्म
आदि में अनित्यता घटाकर उसका जो मेल नित्य द्रव्य के साथ खींचातानी से बिठा रहे थे और कुछ तत्त्व-चिंतक अनित्यता के ऐकान्तिक आग्रह की धुन में अनुभव सिद्ध नित्यता को भी जो कल्पना मात्र बतला रहे थे उन दोनों में जैन तार्किकों ने स्पष्टतया अनुभव की आंशिक असंगति देखी और पूरे विश्वास के साथ बलपूर्वक प्रतिपादन कर दिया कि जब अनुभव न केवल नित्यता का है
और न केवल अनित्यता का, तब किसी एक अंश को मानकर दूसरे अंश का . बलात् मेल बैठाने की अपेक्षा दोनों अंशों को तुल्य सत्यरूप में स्वीकार करना ही न्यायसंगत है। इस प्रतिपादन में दिखाई देनेवाले विरोध का परिहार उन्होंने द्रव्य और पर्याय या सामान्य और विशेष ग्राहिणी दो दृष्टियों के स्पष्ट पृथक्करण से कर दिया। द्रव्य पर्याय की व्यापक दृष्टि का यह विकास जैन परम्परा की ही देन है।
जीवात्मा, परमात्मा और ईश्वर के संबन्ध में सद्गुण-विकास या आचरणसाफल्य की दृष्टि से असंगत ऐसी अनेक कल्पनाएँ तत्त्व-चिंतन के प्रदेश में प्रच.' लित थीं। एक मात्र परमात्मा ही है या उससे भिन्न अनेक जीवात्मा चेतन भी हैं, पर तत्त्वतः वे सभी कूटस्थ निर्विकार और निर्लेप ही हैं । जो कुछ दोष या बंधन है वह या तो निरा भ्रांति मात्र है या जड़ प्रकृति गत है। इस मतलब का तत्त्वचिंतन एक ओर था दूसरी ओर ऐसा भी चिंतन था जो कहता कि चैतन्य तो है, उसमें दोष, वासना आदि का लगाव तथा उससे अलग होने की योग्यता भी है पर उस चैतन्य की प्रवाहबद्ध धारा में कोई स्थिर तत्त्व नहीं है। इन दोनों प्रकार के तत्त्वचिंतनों में सद्गुण-विकास और सदाचार साफल्य की संगति सरलता से नहीं बैठ पाती। वयक्तिक या सामूहिक जीवन में सद्गुण विकास और सदाचार के निर्माण के सिवाय और किसी प्रकार से सामंजस्य जम नहीं सकता । यह सोचकर जैन चिंतकों ने आत्मा का स्वरूप ऐसा माना जिसमें एक ही परमात्मशक्ति भी रहे और जिसमें दोष, वासना आदि के निवारण द्वारा जीवन-शुद्धि की वास्तविक जवाबदेही भी रहे । आत्म-विषयक जैन-चिंतन में वास्तविक परमात्म शक्ति या ईश्वर-भाव का तुल्य रूप से स्थान है, अनुभवसिद्ध आगन्तुक दोषों . के निवारणार्थ तथा सहज बुद्धि के आविर्भावार्थ प्रयत्न का पूरा अवकाश है। इसी व्यवहार-सिद्ध बुद्धि में से जीवभेदवाद तथा देहप्रमाणवाद स्थापित हुए जो सम्मिलित रूप से एकमात्र जैन परंपरा में ही हैं।
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