SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 714
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ जैन धर्म और दर्शन जैन न्याय या प्रमाणशास्त्रों की न तो पूरी व्यवस्था हुई जान पड़ती है और न तद्विषयक तार्किक साहित्य का निर्माण ही देखा जाता है । इस युग के जैन तार्किकों की प्रवृत्ति की प्रधान दिशा दार्शनिक क्षेत्रों में एक ऐसे जैन मंतव्य की स्थापना की ओर रही है जिसके बिखरे हुए और कुछ स्पष्ट-अस्पष्ट बीज आगम में रहे और जो मंतव्य आगे जाकर भारतयी सभी दर्शन परंपरा में एक मात्र जैन परंपरा का ही समझा जाने लगा तथा जिस मंतव्य के नाम पर आज तक सारे जैन दर्शन का व्यवहार किया जाता है, वह मंतव्य है अनेकांतवाद का । दूसरे युग में सिद्धसेन हो या समंतभद्र, मल्लवादी हो या जिनभद्र सभी ने दर्शनांतरों के सामने अपने जैनमत की अनेकांत दृष्टि तार्किक शैली से तथा परमत खंडन के अभिप्राय से इस तरह रखी है कि जिससे इस युग को अनेकांतस्थापन युग ही कहना समुचित होगा । हम देखते हैं कि उक्त आचार्यों के पूर्ववर्ती किसी के प्राकृत या संस्कृत ग्रंथ में न तो वैसी अनेकांत की तार्किक स्थापना है और न अनेकांत मूलक सप्तभंगी और नयवाद का वैसा तार्किक विश्लेषण है, जैसा हम सम्मति, द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका, न्यायावतार स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, नयचक्र और विशेषावश्यक भाष्य में पाते हैं। इस युग के तर्क-दर्शननिष्णात जैन आचार्यों ने नयवाद, सप्तभंगी और अनेकांतवाद की प्रबल और स्पष्ट स्थापना की ओर इतना अधिक पुरुषार्थ किया कि जिसके कारण जैन और जैनेतर परंपराओं में जैन दर्शन अनेकान्तदर्शन के नाम से ही प्रतिष्ठित हुआ । बौद्ध तथा ब्राह्मण दार्शनिक पण्डितों का लक्ष्य अनेकांतखण्डन की ओर गया तथा वे किसी न किसी प्रकार से अपने ग्रंथों में मात्र अनेकांत या ससभंगी का खण्डन करके ही जैन दर्शन के मंतव्यों के खण्डन की इतिश्री समझने लगे । इस युग की अनेकांत और तन्मूलक वादों की स्थापना इतनी गहरी हुई कि जिस पर उन्तरवर्ती अनेक जैनाचार्यों ने अनेकधा पल्लवन किया है फिर भी उसमें नई मौलिक युक्तियों का शायद ही समावेश हुअा है। दो सौ वर्ष के इस युग की साहित्यिक प्रवृत्ति में जैनन्याय और प्रमाणशास्त्र की पूर्व भूमिका तो तैयार हुई जान पड़ती है पर इसमें उस शास्त्र का व्यवस्थित निर्माण देखा नहीं जाता। इस युग की परमतों के सयुक्तिक खण्डन और दर्शनांतरीय समर्थ विद्वानों के सामने स्वमत के प्रतिष्ठित स्थापन की भावना ने जैन परंपरा में संस्कृत भाषा के तथा संस्कृतनिबद्ध दर्शनांतरीय प्रतिष्ठित ग्रंथों के परिशीलन की प्रबल जिज्ञासा पैदा कर दी और उसी ने समर्थ जैन आचार्यो का लक्ष्य अपने निजी न्याय तथा प्रमाणशास्त्र के निर्माण की ओर खींचा जिसकी कमी बहुत ही अखर रही थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy