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________________ ३६२ . जैन धर्म और दर्शन तब भी पता नहीं चल सकता है कि उनकी कुल संख्या कितनी होगी। उपलब्ध सूत्र सौ ही हैं और उतने ही सूत्रों की वृत्ति भी है। अंतिम उपलब्ध २-१३५ की वृत्ति पूरी होने के बाद एक नए सूत्र का उत्थान उन्होंने शुरू किया है और उस अधूरे उत्थान में ही खण्डित लभ्य ग्रंथ पूर्ण हो जाता है। मालूम नहीं कि इसके आगे कितने सूत्रों से वह आह्निक पूरा होता ? जो कुछ हो पर उपलब्ध ग्रंथ दो अध्याय तीन आह्निक मात्र है जो स्वोपज्ञ वृत्ति सहित ही है। यह कहने की तो जरूरत ही नहीं कि प्रमाण मीमांसा किस भाषा में है, पर उसकी भाषा विषयक योग्यता के बारे में थोड़ा जान लेना जरूरी है। इसमें संदेह नहीं कि जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा के प्रवेश के बाद उत्तरोत्तर संस्कृत भाषा का वैशारद्य और प्राञ्जल लेखपाटव बढ़ता ही पा रहा था फिर भी हेमचंद्र का लेख-वैशारद्य, कम से कम जैन वाङ्मय में तो मूर्धन्य स्थान रखता है । वैयाकरण, आलंकारिक, कवि और कोषकार रूप से हेमचंद्र का स्थान न केवल समग्र जैन परंपरा में बल्कि भारतीय विद्वत्परंपरा में भी असाधारण रहा । यही उनकी असाधारणता और व्यवहारदक्षता प्रमाण-मीमांसा की भाषा व रचना में स्पष्ट होती है। भाषा उनकी वाचस्पति मिश्र की तरह नपी-तुली और शब्दा- . डम्बर शन्य सहज प्रसन्न है । वर्णन में न उतना संक्षेप है जिससे वक्तव्य अस्पष्ट रहे और न इतना विस्तार है जिससे ग्रंथ केवल शोभा की वस्तु बना रहे । ३-जैन तर्क साहित्य में प्रमाण मीमांसा का स्थान जैन तर्क साहित्य में प्रमाण मीमांसा का स्थान क्या है, इसे समझने के लिए जैन साहित्य के परिवर्तन या विकास संबंधी युगों का ऐतिहासिक अवलोकन करना जरूरी है। ऐसे युग संक्षेप में तीन हैं-१-श्रागमयुग, २-संस्कृत प्रवेश या अनेकांतस्थापन युग, ३-न्याय-प्रमाण स्थापन युग ।। पहला युग भगवान महावीर या उनके पूर्ववर्ती भागवान् पार्श्वनाथ से लेकर आगम संकलना-विक्रमीय पंचम-प्रष्ठ शताब्दी तक का करीब हजार बारह सौ वर्ष का है। दूसरा युग करीब दो शताब्दियों का है जो करीब विक्रमीय छठी शताब्दी से शुरू होकर सातवीं शताब्दी तक में पूर्ण होता है। तीसरा युग विक्रमीय आठवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक करीब एक हजार वर्ष का है। सांप्रदायिक संघर्ष और दार्शनिक तथा दूसरी विविध विद्याओं के विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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