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________________ २१ - मोहमें रसानुभूति है, सुख-संवेदन भी है। पर वह इतना परिमित और इतना अस्थिर होता है कि उसके श्रादि, मध्य और अन्तमें ही नहीं उसके प्रत्येक अंश में शंका, दुःख और चिन्ताका भाव भरा रहता है जिसके कारण घड़ीके लोलककी तरह वह मनुष्य के चित्तको स्थिर बनाए रखता है । मान लीजिए कि कोई युवक अपने प्रेम पात्र के प्रति स्थूल मोहवश बहुत ही दत्तचित्त रहता है, उसके प्रति कर्तव्य पालनमें कोई त्रुटि नहीं करता, उससे उसे रसानुभव और सुख-संवेदन भी होता है । फिर भी बारीकी से परीक्षण किया जाए, तो मालूम होगा कि वह स्थूल मोह अगर सौन्दर्य या भोगलालसासे पैदा हुआ है, तो न जाने वह किस क्षण नष्ट हो जाएगा, घट जाएगा या अन्य रूपमें परिणत हो जाएगा । जिस क्षण युवक या युवतीको पहले प्रेम पात्रकी अपेक्षा दूसरा पात्र अधिक सुन्दर, अधिक समृद्ध, अधिक बलवान् या अधिक अनुकूल मिल जाएगा, उसी क्षण उसका चित्त प्रथम पात्रकी ओरसे हटकर दूसरी ओर झुक पड़ेगा और इस झुकावके साथ ही प्रथम पात्र के प्रति कर्तव्य - पालन के चक्रकी, जो पहलेसे चल रहा था, गति और दिशा बदल जाएगी । दूसरे पात्र के प्रति भी वह चक्र योग्य रूपसे न चल सकेगा और मोहका रसानुभव जो कर्त्तव्य पालनसे संतुष्ट हो रहा था, कर्तव्य पालन करने या न करनेपर भी तृप्त ही रहेगा। माता मोहवश अंगजात बालकके प्रति अपना सब कुछ न्यौछावर करके रसानुभव करती है, पर उसके पीछे अगर सिर्फ मोहका भाव है तो रसानुभव बिलकुल संकुचित और अस्थिर होता है । मान लीजिए कि वह बालक मर गया और उसके बदले में उसकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर और पुष्ट दूसरा बालक परवरिश के लिए मिल गया, जो बिलकुल मातृहीन है । परन्तु इस निराधार और सुन्दर बालकको पाकर भी वह माता उसके प्रति अपने कर्तव्य पालन में वह रसानुभव नहीं कर सकेगी जो अपने अंगजात बालकके प्रति करती थी । बालक पहले से भी अच्छा मिला है, माताको बालककी स्पृहा है और अर्पण करनेकी वृत्ति भी है । बालक भी मातृहीन होनेसे बालकापेक्षिणी माताकी प्रेम-वृत्तिका अधिकारी है । फिर भी उस माताका चित्त उसकी ओर मुक्त धारासे नहीं बहता । इसका सबब एक ही है और वह यह कि उस माताकी न्यौछावर या अर्पणवृत्तिका प्रेरक भाव केवल मोह था, जो स्नेह होकर भी शुद्ध और व्यापक न था, इस कारण उसके हृदय में उस भावके होनेपर भी उसमें से कर्त्तव्य-पालनके फव्वारे नहीं छूटते, भीतर ही भीतर उसके हृदयको दबाकर सुखी के बजाय दुखी करते हैं, जैसे खाया हुआ पर हजम न हुआ सुन्दर अन्न । वह न तो खून बनकर शरीरको सुख पहुँचाता है और न बाहर निकलकर शरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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