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________________ ३५० जैन धर्म और दर्शन सत्य है; अर्थात् जो दर्शन सत्य के व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा सांवृतिक और वास्तविक ऐसे दो भेद करके लौकिक प्रमाणगम्य और वाणीप्रकाश्य भाव को अवास्तविक मानते हैं, वे अवास्तववादी हैं। इन्हें निषेधमुख या अनेवंवादी भी कह सकते हैं। जैसे शून्यवादी-विज्ञानवादी बौद्ध और शांकरवेदान्त आदि दर्शन । प्रकृति से अनेकान्तवादी होते हुए भी जैन दृष्टि का स्वरूप एकान्ततः वास्तववादी ही है क्योंकि उसके मतानुसार भी इन्द्रियजन्य मतिज्ञान आदि में भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का वही स्थान है जो पारमार्थिक केवलज्ञान में भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का स्थान है अर्थात् जैन मतानुसार दोनों सत्य की मात्रा में अन्तर है, योग्यता व गुण में नहीं। केवल ज्ञान में द्रव्य और उनके अनन्य पर्याय जिस यथार्थता से जिस रूप से भासित होते हैं उसी यथार्थता और उसी रूप से कुछ द्रव्य और उनके कुछ ही पर्याय मतिज्ञान आदि में भी भासित हो सकते हैं। इसी से जैन दर्शन अनेक सूक्ष्मतम भावों की अनिर्वचनीयता को मानता हुआ भी निर्वचनीय भावों को यथार्थ मानता है, जब कि शून्यवादी और शांकर वेदांत आदि ऐसा नहीं मानते । २. जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता जैन दृष्टि का जो वास्तववादित्व स्वरूप ऊपर बताया गया वह इतिहास के प्रारंभ से अब तक एक ही रूप में रहा है या उसमें कभी किसी के द्वारा थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है, यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है। इसके साथ ही दूसरा प्रश्न यह होता है कि अगर जैन दृष्टि सदा एक सी स्थितिशील रही और बौद्ध वेदान्त दृष्टि की तरह उसमें परिवर्तन या चिन्तन विकास नहीं हुआ तो इसका क्या कारण ? भगवान महावीर का पूर्व समय जब से थोड़ा बहुत भी जैन परम्परा का इतिहास पाया जाता है तब से लेकर आजतक जैन दृष्टि का वास्तववादित्व स्वरूप बिलकुल अपरिवर्तिष्णु या ध्रुव ही रहा है। जैसा कि न्याय-वैशेषिक, पूर्व मीमांसक, सांख्य योग आदि दर्शनों का भी वास्तववादित्व अपरिवर्तिष्णु रहा है। बेशक न्याय वैशेषिक आदि उक्त दर्शनों की तरह जैन दर्शन के साहित्य में भी प्रमाण प्रमेय आदि सब पदार्थों की व्याख्याओं में लक्षण-प्रणयन में और उनकी उपपत्ति में उत्तरोत्तर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विकास तथा स्पष्टता हुई है, यहाँ तक कि नव्य न्याय के परिष्कार का प्राश्रय लेकर भी यशोविजयजी जैसे जैन विद्वानों ने व्याख्या एवं लक्षणों का विश्लेषण किया है फिर भी इस सारे ऐतिहासिक समय में जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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