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जैन धर्म और दर्शन 'सिद्धाणं सिद्धगई, केवलणाणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहारं, उवजोगाणक्कमपउत्ती ॥७३०॥ --जीवकाण्ड । 'दंसणपुव्वं णाणं, छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि॥४४॥'
-द्रव्यसंग्रह।
(६) 'एकेन्द्रिय में श्रुतज्ञान'
एकेन्द्रियों में तीन उपयोग माने गए हैं। इसलिए यह शङ्का होती है कि स्पर्शनेन्द्रिय-मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से एकेन्द्रियों में मति-उपयोग मानना ठीक है, परन्तु भाषालब्धि (बोलने की शक्ति) तथा श्रवणलब्धि (सुनने की शक्ति) न होने के कारण उनमें श्रुत-उपयोग कैसे माना जा सकता है; क्योंकि शास्त्र में भाषा तथा श्रवणलब्धि वालों को ही श्रुतज्ञान माना है । यथा
'भावसुर्य भासासायलद्धिरणा जुज्जए न इयरस्स। भासाभिमुहस्स जयं, सोऊण य जं हविजाहि ॥१०२।।।
-विशेषावश्यक। बोलने व सुनने की शक्ति वाले ही को भावश्रुत हो सकता है, दूसरे को नहीं क्योंकि 'श्रुत-ज्ञान' उस ज्ञान को कहते हैं, जो बोलने की इच्छा वाले या वचन सुननेवाले को होता है।
इसका समाधान यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय के सिवाय अन्य द्रव्य (बाह्य) इन्द्रियाँ न होने पर भी वृक्षादि जीवों में पाँच भावेन्द्रिय-जन्य ज्ञानों का होना, जैसा शास्त्रसम्मत है; वैसे ही बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रियों में भावश्रुत ज्ञान का होना शास्त्र-सम्मत है ।
'जह सुहुमं भाविंदियनाणं दविदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥१०४।'
-विशेषावश्यक । जिस प्रकार द्रव्य-इन्द्रियों के अभाव में भावेन्द्रिय-जन्य सूक्ष्म ज्ञान होता है, इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के भाषा आदि बाह्य निमिच के अभाव में भी पृथ्वीकायिक
आदि जीवों को अल्प भावश्रुत होता है । यह ठीक है कि औरों को जैसा स्पष्ट ज्ञान होता है, वैसा एकेन्द्रियों को नहीं होता । शास्त्र में एकेन्द्रियों को आहार का अभिलाष माना है, यही उनके अस्पष्ट ज्ञान मानने में हेतु है ।
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