SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 656
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३.६ जैन धर्म और दर्शन (५) 'उपयोग का सह-क्रममाव' छद्मस्थ के उपयोग क्रमभावी हैं, इसमें मतभेद नहीं है, पर केवली के उपयोग के संबन्ध में मुख्य तीन पक्ष हैं (१) सिद्धान्त-पक्ष. केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी मानता है । इसके समर्थक श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं। (२) दूसरा पक्ष केवलज्ञान केवलदर्शन, उभय उपयोग को सहभावी मानता है । इसके पोषक श्री मल्लवादी तार्किक आदि हैं। (३) तीसरा पक्ष, उभय उपयोगों का भेद न मानकर उनका ऐक्य मानता है । इसके स्थापक श्री सिद्धसेन दिवाकर हैं। तीनों पक्षों की कुछ मुख्य-मुख्य दलीलें क्रमशः नीचे दी जाती हैं १-(क) सिद्धान्त (भगवती-शतक १८ और २५ के ६ उद्देश्य, तथा प्रज्ञापना-पद ३० ) में ज्ञान-दर्शन दोनों का अलग-अलग कथन है तथा उनका क्रमभावित्व स्पष्ट वर्णित है । (ख) नियुक्ति (प्रा० नि० गा० ६७७-६७६) में केव. लज्ञान-केवलदर्शन दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण उनके द्वारा सर्व-विषयक ज्ञान तथा दर्शन का होना और युगपत् दो उपयोगों का निषेध स्पष्ट बतलाया है । (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण और उपयोगों की बारह संख्या शास्त्र में (प्रजापना २६, पृ० ५.२५ श्रादि ) जगह-जगह वर्णित है । (घ) केवलज्ञान और केवलदर्शन, अनन्त कहे जाते हैं, सो लब्धि की अपेक्षा से उपयोग की अपेक्षा से नहीं। उपयोग की अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समय की है। क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से अनन्तता शास्त्र में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है । (ङ) उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है, जिससे कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसलिए केवल ज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिए। २-(क) आवरण-क्षयरूप निमित्त और सामान्य-विशेषात्मक विषय, समकालीन होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं। (ख) छाद्मस्थिक-उपयोगों में कार्यकारणभाव या परस्पर प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव घट सकता है, क्षायिक-उपयोगों में नहीं; क्योंकि बोध-स्वभाव शाश्वत आत्मा, जब निरावरण हो, तब उसके दोनों क्षायिक-उपयोग निरन्तर ही होने चाहिए। (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन की सादि-अपर्यवसितता, जो शास्त्र में कही है, वह भी युगपत्-पक्ष में ही घट सकती है; क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं । इसलिए द्रव्यार्थिकनय से उपयोग-द्वय के प्रवाह को अपर्यवसित (अनन्त ) कहा जा सकता है । (घ) केवलज्ञान-केवलदर्शन के संबन्ध में सिद्धान्त में जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy