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तेश्या
लेश्या-द्रव्य के स्वरूप संबन्धी उक्त तीनों मत के अनुसार तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त भाव-लेश्या का सद्भाव समझना चाहिए। यह सिद्धान्त गोम्मटसार-जीव काण्ड को भी मान्य है; क्योंकि उसमें योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है । यथा
'अयदोत्ति छलेस्साओ, सुहतियलेस्सा दु देसविरदतिये
तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥५३१॥' सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के स्थानान्तर में कषायोदय-अनुरञ्जित योगप्रवृत्ति को 'लेश्या' कहा है । यद्यपि इस कथन से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या का होना पाया जाता है, पर यह कथन अपेक्षा-कृत होने के कारण पूर्व कथन से विरुद्ध नहीं है। पूर्व कथन में केवल प्रकृति-प्रदेश बन्ध के निमित्तभूत परिणाम. लेश्यारूप से विवक्षित हैं। और इस कथन में स्थिति-अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से विवक्षित हैं; केवल प्रकृति-प्रदेश बन्ध के. निमित्तभूत परिणाम नहीं । यथा___'भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योग-प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते।'
-सर्वार्थसिद्धि-अध्याय २, सूत्र ६ । 'जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ । तत्तो दोण्णं कज्ज, बंधचउक्कं समुहि ॥४८६।'
-जीवकाण्ड । द्रव्यलेश्या के वर्ण-गन्ध आदि का विचार तथा भावलेश्या के लक्षण आदि का विचार उत्तराध्ययन, अ० ३४ में है । इसके लिए प्रज्ञापना-लेश्यापद, आवश्यक, लोकप्रकाश आदि आकर ग्रंथ श्वेताम्बर-साहित्य में है । उक्त दो दृष्टांतों में से पहला दृष्टांत, जीवकाण्ड गा० ५०६-५०७ में है। लेश्या की कुछ विशेष बातें जानने के लिए जीवकाण्ड का लेश्या मार्गणाधिकार ( गा० ४८८५५५ ) देखने योग्य है।
जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तर-तम-भाव का सूचक, लेश्या का विचार, जैसा जैन शास्त्र में है; कुछ उसी के समान, छह जातियों का विभाग, मङ्खलीगोसाल पुत्र के मत में है, जो कर्म की शुद्धि-अशुद्धि को लेकर कृष्ण नील आदि छह वर्णों के आधार पर किया गया है । इसका वर्णन, 'दीघनिकाय-सामञफलसुत्त' में है ।
'महाभारत के १२, २८६ में भी छह 'जीव-वर्ण दिये हैं, जो उक्त विचार से कुछ मिलते-जुलते हैं।
'पातञ्जलयोगदर्शन' के ४,७ में भी ऐसी कल्पना है; क्योंकि उसमें कर्म के
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