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बौद्ध मन्तव्य
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स्पष्ट किया हुआ है । उसमें वर्णन किया है कि तत्कालजात वत्स, कुछ बड़ा किन्तु दुर्बल वत्स, प्रौढ़ वत्स, हल में जोतने लायक बलवान् बैल और पूर्ण वृषभ जिस प्रकार उत्तरोत्तर अल्प- अल्प श्रम से गङ्गा नदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं, वैसे ही धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच प्रकार के के वेग को उत्तरोत्तर अल्प श्रम से जीत सकते हैं
आत्मा भी मार — काम
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बौद्ध-शास्त्र में दस संयोजनाएँ --- बंधन वर्णित हैं। इनमें से पाँच 'रंभागीय' और पाँच 'उड्ढ़ंभागीय' कही जाती हैं। पहली तीन संयोजनात्रों का क्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है । इसके बाद राग, द्व ेष और मोह शिथिल होने से सकदागामी अवस्था प्राप्त होती है । पाँच आरंभागीय संयोजनाओं का नाश होनेपर औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा किंवा अनागामी अवस्था प्राप्त होती है और दसों संयोजनाओं का नाश हो जाने पर रहा पद मिलता है । यह वर्णन जैनशास्त्र-गत कर्म प्रकृतियों के क्षय के वर्णन - जैसा है । सोतापन्न यदि उक्त चार अवस्थाओं का विचार चौथे से लेकर चौदहवें तक के गुणस्थानों के विचारों से मिलता-जुलता है अथवा यों कहिए कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों का संक्षेपमात्र हैं ।
जैसे जैन-शास्त्र में लब्धिका तथा योगदर्शन में योगविभूति का वर्णन है, वैसे बौद्ध शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास - कालीन सिद्धियों का वर्णन है, जिनको उसमें 'अभिज्ञा' कहते हैं । ऐसी अभिज्ञाएँ छह हैं, जिनमें पाँच लौकिक और एक लोकोत्तर कही गयी है।
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बौद्ध-शास्त्र में बोधिसत्व का जो लक्षण है, वही जैन शास्त्र के अनुसार सम्यदृष्टि का लक्षण है । जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह यदि गृहस्थ के आरम्भ समारम्भ
१. देखिए, पृ० १५६ ।
२. (१) सक्कायदिहि, (२) विचिकच्छा, (३) सीलब्बत परामास, (४) कामराग, (५) पटीघ, (६) रूपराग, (७) श्ररूपराग, (८) मान, (६) उद्धच्च और (१०) विजा | मराठीभाषांतरित दीघनिकाय, पृ० १७५ टिप्पणी |
३ देखिए, मराठी भाषांतरित मज्झिमनिकाय, पृ० १५६ ।
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४. 'कायपातिन एवेह बोधिसत्त्वाः परोदितम् ।
न चित्तपातिनस्तावदेतदत्रापि युक्तिमत् || २७१ ॥ '
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— योगबिन्दु ।
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