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________________ गुणस्थान और योग २६१ कहा है और जैन शास्त्र में शुद्धि के तर-तम भावानुसार उस समष्टि के अध्यात्म दि चार भेद किये हैं । वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परंपरा से कारण होनेवाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वे पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिए । किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि चरम पुद्गलपरावर्तकाल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योग कोटि में गिने जाने चाहिए । इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते ही, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म व्यापार हो जाते हैं । इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर चरम पुद्गलपरावर्तकालीन व्यापार मोद के अनुकूल नहीं होते । योग के उपाय और गुणस्थानों में योगावतार I पातञ्जलदर्शन में (१) अभ्यास और ( २ ) वैराग्य, ये दो बतलाये हुए हैं । उसमें वैराग्य भी पर अपर रूप से दो प्रकार योग का कारण होने से वैराग्य को योग मानकर जैन शास्त्र में तात्त्विक धर्मसंन्यास और पर वैराग्य को तात्त्विक धर्मसंन्यास जैनशास्त्र में योग का प्रारम्भ पूर्व सेवा से माना गया है । पूर्वसेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान तथा समता, ध्यान तथा समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष प्राप्त होता है । इसलिए वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर समता पर्यन्त सभी धर्म-व्यापार साक्षात् किंवा परंपरा से योग के उपायमात्र* हैं । पुनर्बन्धक, जो मिथ्यात्व को त्यागने के लिए I ३. 'पूर्व सेवा तु योगस्य, गुरुदेवादिपूजनम् । सदाचार तपो मुक्त्यद्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः ॥ १ ॥' १. देखिये, पाद १, सूत्र १२, १५ र १६ । २. 'विषयदोषदर्शनजनितभयात् धर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम्, स तत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन जनितं द्वितीयापूर्वकरण भावितात्त्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितीयं वैराग्यं यत्र क्षायोपशमिका धर्मा अपि क्षीयन्ते क्षायिका श्चोत्पद्यन्त इत्यस्माकं सिद्धान्तः ।' श्रीयशोविजयजी कृत पातञ्जल - दर्शनवृत्ति, पाद १०, सूत्र १६ । ४. ' उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते । तत्पञ्चमगुणस्थानादुपायोऽर्वागिति स्थितिः ||३१| Jain Education International उपाय योग के कहा गया है ' | अपर - वैराग्य को योग कहा है । For Private & Personal Use Only का — पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका | - योगभेदद्वात्रिंशिका । www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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