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________________ २७६ जैन धर्म और दर्शन इस गुणस्थान को उत्क्रान्ति स्थान नहीं कह सकते। क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करनेवाला श्रात्मा इस दूसरे स्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाला ही आत्मा इसका अधिकारी बनता है । अधःपतन मोह के उद्रेक से होता है । अतएव इस गुणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का अविर्भाव पाया जाता है। खीर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद अर्थात् न अतिमधुर न अति अम्ल जैसा प्रतीत होता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान के समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है । क्योंकि उस समय श्रात्मा न तो तत्त्व-ज्ञान की निश्चित भूमिका पर है और न तत्त्व-ज्ञानशून्य की निश्चित भूमिका पर । अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से खिसक कर जब तक जमीनपर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसे ही सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में अर्थात् बीच में आत्मा एक विलक्षण प्राध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है । यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनुभव से भी प्रसिद्ध है कि जब किसी निश्चित उन्नत अवस्था से गिरकर कोई निश्चित अवनत अवस्था प्राप्त की जाती है, तब बीच में एक विलक्षण परिस्थिति खड़ी होती है । तीसरा गुणस्थान श्रात्मा की उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु श्रात्मा उसमें दोलायमान अध्यात्मिक स्थितिवाला बन जाता है । श्रतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच । न तो वह तत्त्व को एकान्त तत्त्वरूप से ही जानती है और न तत्त्वतत्त्व का वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है । कोई उत्क्रान्ति करनेवाला आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधे ही तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है और कोई वक्रान्ति करनेवाला श्रात्मा भी चतुर्थ आदि गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाले और श्रवक्रान्ति करनेवाले- दोनों प्रकार के आत्माओं का श्राश्रय-स्थान तीसरा गुणस्थान है । यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्थान से विशेषता है । ऊपर आत्मा की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा की सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं— बहिरात्मअवस्था, (२) अन्तरात्म-वस्था और (३) परमात्म-अवस्था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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