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________________ गुणस्थान का विशेष स्वरूप २७३ पहले कभी न हुई ऐसी श्रात्म-शुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है। जिस से कोई विकासगामी श्रात्मा तो मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमशः दबाता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उसे बिलकुल ही उपशान्त कर देता है। और विशिष्ट आत्म-शुद्धि वाला कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को क्रमशः जड़ मूल से उखाड़ता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उन सब संस्कारों को सर्वथा निर्मूल ही कर डालता है। इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले अर्थात् अन्तरात्म-भाव के विकास द्वारा परमात्मभाव रूप सर्वोपरि भूमिका के निकट पहुँचने वाले अात्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं। ___ एक श्रेणिवाले तो ऐसे होते हैं, जो मोह को एक बार सर्वथा दबा तो लेते हैं, उसे निर्मूल नहीं कर पाते । अतएव जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई भाप कभी-कभी अपने वेग से उस बर्तन को उड़ा ले भागती है या नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबी हुई अग्नि हवा का झकोरा लगते ही अपना कार्य करने लगती है, किंवा जिस प्रकार जल के तल में बैठा हुअा मल थोड़ा सा क्षोभ पाते ही ऊपर उठकर जल को गैंदला कर देता है, उसी प्रकार पहले दबाया हुआ भी मोह आन्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणी वाले आत्माओं को अपने वेग के द्वारा नीचे पटक देता है। एक बार सर्वथा दबाये जाने पर भी मोह, जिस भूमिका से प्रात्माः को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है। मोह को क्रमशः दबाते-दबाते सर्वथा दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धिवाली दो भमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं। जो नौवाँ तथा दसवाँ गुणस्थान कहलाता है । ग्यारहवाँ गुणस्थान अधःपतन का स्थान है; क्योंकि उसे पानेवाला आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरता है। . दूसरी श्रेणिवाले श्रात्मा मोह को क्रमशः निर्मूल करते-करते अन्त में उसे सर्वथा निमूल कर ही डालते हैं । सर्वथा निमूल करने की जो उच्च भूमिका है, वहीं बारहवाँ गुणस्थान है । 'इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्वथा निम्ल करने से पहले बीच में नौवाँ और दवसाँ गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इसी प्रकार देखा जाए तो चाहे पहली श्रेणिवाले हों, चाहे दूसरी श्रेणिवाले, पर वे सब नौवाँ दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करते ही हैं। दोनों श्रेणि बलों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणिवालों की अपेक्षा दसरी श्रोणवालों में आत्म-शुद्धि व आत्म-बल विशिष्ट प्रकार का पाया जाता है। जैसे -किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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