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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
२९ वह रागद्वेष की तीव्रतम-दुर्भद ग्रंथि को तोड़ने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेता है। इस अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में 'यथाप्रवृत्तिकरण, ' कहा है। इसके बाद जब कुछ और भी अधिक श्रात्म-शुद्धि तथा वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब रागद्वेष की उस दुर्भेद ग्रंथि का भेदन किया जाता है। इस ग्रंथिभेदकारक आत्म-शुद्धि को 'अपूर्वकरण कहते हैं। क्योंकि ऐसा करण–परिणाम ३ विकासगामी आत्मा के लिए अपूर्व• प्रथम ही प्राप्त है । इसके बाद श्रात्म-शुद्धि व वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति-दर्शनमोह पर अवश्य विजयलाभ करता है । इस विजयकारक आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में 'अनिवृत्तिकरण' ४ कहा है, क्योंकि उस आत्म-शुद्धि के हो जाने पर प्रात्मा दर्शनमोह पर जयलाभ बिना किये नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त तीन प्रकार की प्रात्म
१ १ इसको दिगम्बरसम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। इसके लिए देखिए, तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६. १. १३.
२ तीव्रधारपर्युकल्पाऽपूख्यिकरणेन हि । . आविष्कृत्य परं वीयं ग्रन्थिं भिन्दन्ति केचन ॥६१८॥
—लोकप्रकाश, सर्ग ३। ३ परिणामविशेषोऽत्र करणं प्राणिनां मतम् ।।५६६।।
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ । ४ "प्रथानिवृत्तिकरणेनातिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहर्तसंमितम् ॥६२७॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोहस्थितिर्द्विधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोध्वंगा ॥२८॥ तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्द लवेदनात् । अतीतायामथैतस्यां स्थितावन्तर्मुहूर्णतः ॥६२६॥ प्राप्नोत्यन्तरकरणं तस्याद्यक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौद्गलिकमाप्नुयात् ॥६३०॥ यथा वनदवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यायति तथा, मिथ्यात्वोग्रदवानलः ॥६३१॥ अवाप्यान्तरकरणं क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदौपशमिकं नाम सम्यक्त्वं लभतेऽसुमान् ॥६३२।।
-लोकप्रकाश, सर्ग३ ।
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