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________________ २५८ जैन धर्म और दर्शन जिज्ञासा की पूर्ति की गई है । जैसे मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की जिज्ञासा होती है, वैसे ही जीवस्थानों में गुणस्थानों की और गुणस्थानों में जीवस्थानों की भी जिज्ञासा होती है। इतना ही नहीं, बल्कि जीवस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की और मार्गणास्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की तथा गुणस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की भी जिज्ञासा होती है । इन सब जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए चतुर्थ कर्मग्रन्थ की रचना हुई है । इससे इसमें मुख्यतया जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन अधिकार रखे गये हैं । और प्रत्येक अधिकार में क्रमशः आठ, छह तथा दस विषय वर्णित हैं, जिनका निर्देश पहली गाथा के भावार्थ में पृष्ठ पर तथा स्फुट नोट में संग्रह गाथाओं के द्वारा किया गया है। इसके सिवाय प्रसंग वश इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने भावों का और संख्या का भी विचार किया है । यह प्रश्न हो ही नहीं सकता कि तीसरे कर्मग्रन्थ की संगति के अनुसार मार्गणास्थानों में गुणस्थानों मात्र का प्रतिपादन करना आवश्यक होने पर भी, जैसे अन्य-अन्य विषयों का इस ग्रंथ में अधिक वर्णन किया है, वैसे और भी नए-नए कई विषयों का वर्णन इसी ग्रंथ में क्यों नहीं किया गया ? क्योंकि किसी भी एक ग्रंथ में सब विषयों का वर्णन असंभव है। अतएव कितने और किन विषयों का किस क्रम से वर्णन करना, यह ग्रंथकार की इच्छा पर निर्भर है; अर्थात् इस बात में ग्रंथकार स्वतंत्र है । इस विषय में नियोग-पर्यनुयोग करने का किसी को अधिकार नहीं है। प्राचीन और नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ 'षडशीतिक' यह मुख्य नाम दोनों का समान है, क्योंकि गाथाओं की संख्या दोनों में बराबर छियासी ही है। परंतु नवीन ग्रंथकार ने 'सूक्ष्मार्थ विचार' ऐसा नाम दिया है और प्राचीन की टीका के अंत में टीकाकार ने उसका नाम 'बागमिक वस्तु विचारसार' दिया है। नवीन की तरह प्राचीन में भी मुख्य अधिकार जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान ये तीन ही हैं। गौण अधिकार भी जैसे नवीन में क्रमशः पाठ, छह तथा दस हैं, वैसे ही प्राचीन में भी हैं । गाथाओं की संख्या समान होते हुए भी नवीन में यह विशेषता है कि उसमें वर्णनशैली संक्षिप्त करके ग्रंथकार ने दो और विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये हैं। पहला विषय 'भाव' और दूसरा 'संख्या' है । इन दोनों का स्वरूप नवीन में सविस्तर है और प्राचीन में बिलकुल नहीं है । इसके सिवाय प्राचीन और नवीन का विषय-साम्य तथा क्रम-साम्य बराबर है । प्राचीन पर टीका, टिप्पणी, विवरण, उद्धार, भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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