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________________ मार्गणा और गुणस्थान २५ ३ इन्हीं क्रमिक अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं । इन क्रमिक संख्यातीत व स्थानों को ज्ञानियों ने संक्षेप में १४ विभागों में विभाजित किया है । यही १४ विभाग जैन शास्त्र में ‘१४ गुणस्थान' कहे जाते हैं । वैदिक साहित्य में इस प्रकार की श्राध्यात्मिक अवस्थाओं का वर्णन है । पातञ्जल योग-दर्शन में ऐसी आध्यात्मिक भूमिकाओं का मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा नाम से उल्लेख किया है । भ्योगवा - सिष्ठ में अज्ञान की सात और ज्ञान की सात इस तरह चौदह चित्त-भूमिकाओं का विचार आध्यात्मिक विकास के आधार पर बहुत विस्तार से किया है । (ग) मार्गणा और गुणस्थान का पारस्परिक अन्तर मार्गणाओं की कल्पना कर्म पटल के तरतमभाव पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक भिन्नताएँ जीव को घेरे हुए हैं वही मार्गणाओं की कल्पना का आधार है । इसके विपरीत गुणस्थानों की कल्पना कर्मपटल के, खास कर मोहनीय कर्म के, तरतमभाव और योग की प्रवृत्ति - पर अवलम्बित है । I मार्गणाएँ जीव के विकास की सूचक नहीं हैं किन्तु वे उस के स्वाभाविकवैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से पृथक्करण हैं । इससे उलटा गुणस्थान, जीव के विकास के सूचक हैं, वे विकास की क्रमिक अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण हैं । मार्गणाएँ सब सह भाविनी हैं पर गुणस्थान क्रम भावी । इसी कारण प्रत्येक जीव में एक साथ चौदहों मार्गणाएँ किसी न किसी प्रकार से पाई जाती हैं - सभी संसार जीव एक ही समय में प्रत्येक मार्गणा में वर्तमान पाये जाते हैं । इससे उलटा गुणस्थान एक समय में एक जीव में एक ही पाया जाता है - एक. समय में सब जीव किसी एक गुणस्थान के अधिकारी नहीं बन सकते, किंतु उन का कुछ भाग ही एक समय में एक गुणस्थान का अधिकारी होता है । इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि एक जीव एक समय में किसी एक गुणस्थान में ही वर्तमान होता है परंतु एक ही जीव एक समय में चौदहों मार्गणात्रों में वर्तमान होता है। पूर्व - पूर्व गुणस्थान को छोड़कर उत्तरोत्तर गुणस्थान को प्राप्त करना प्राध्यात्मिक विकास को बढ़ाना है, परंतु पूर्व-पूर्व मार्गणा को छोड़कर उत्तरोत्तर मार्गणा न तो प्राप्त ही की जा सकती हैं और न इनसे आध्यात्मिक विकास ही सिद्ध १ पाद १ सू. ३६; पाद ३ सू. ४८-४६ का भांष्य पाद १ सूत्र १ की टीका । २ उत्पत्ति प्रकरण - सर्ग ११७-११८-१२६, निर्वाण १२०-१२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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