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________________ मन्दिर निर्माण, छीना-झपटी आदि सब धर्म अथवा धर्मोद्धारके नामपर होता है । ये संस्कृत जातियोंके लक्षण तो कदापि नहीं हैं। ___ सामान्य समझके लोग धर्म और संस्कृतिमें अभेद कर डालते हैं। कोई संस्कृतिकी चीज सामने आई, जिसपर कि लोग मुग्ध हों, तो बहुधा उसे धर्म कहकर बखाना जाता है और बहुतसे भोले-भाले लोग ऐसी सांस्कृतिक वस्तु. ओंको ही धर्म मानकर उनसे सन्तुष्ट हो जाते हैं। उनका ध्यान सामाजिक न्यायोचित व्यवहारकी ओर जाता ही नहीं। फिर भी वे संस्कृतिके नामपर नाचते रहते हैं। इस तरह यदि हम औरोंका विचार छोड़कर केवल अपने भारतीय समाजका ही विचार करें, तो कहा जा सकता है कि हमने संस्कृतिके नामपर अपना वास्तविक सामर्थ्य बहुत-कुछ गँवाया है। जो समाज हजारों वोंसे अपनेको संस्कृत मानता आया है और अपनेको अन्य समाजोंसे संस्कृततर समझता है वह समाज यदि नैतिक बलमें, चरित्र-बलमें, शारीरिक बलमें और सहयोगकी भावनामें पिछड़ा हुआ हो, खुद अापसमें छिन्न-भिन्न हो, तो वह समाज वास्तवमें संस्कृत है या असंस्कृत, यह विचार करना आवश्यक है। संस्कृति भी उच्चतर हो और निर्बलताकी भी पराकाष्ठा हो, यह परस्पर विरोधी बात है। इस दृष्टिसे भारतीय समाज संस्कृत है, एकान्ततः ऐसा मानना बड़ी भारी गलती होगी। __ जैसे सच्चे मानीमें हम अाज संस्कृत नहीं हैं, वैसे ही सच्चे मानीमें हम धार्मिक भी नहीं हैं। कोई भी पूछ सकता है कि तब क्या इतिहासकार और विद्वान् जब भारतको संस्कृति तथा धर्मका धाम कहते हैं, तब क्या वे झूठ कहते हैं ? इसका उत्तर 'हाँ' और 'ना' दोनोंमें है। अगर हम इतिहासकारों और विद्वानोंके कथनका यह अर्थ समझे कि सारा भारतीय समाज या सभी भारतीय जातियाँ और परम्पराएँ संस्कृत एवं धार्मिक ही हैं तो उनका कथन अवश्य सत्यसे पराङ्मुख होगा । यदि हम उनके कथनका अर्थ इतना ही समझे कि हमारे देश में खास-खास ऋषि या साधक सांस्कृतिक एवं धार्मिक हुए हैं तथा वर्तमानमें भी हैं, तो उनका कथन असत्य नहीं । उपर्युक्त चर्चासे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि हमारे निकटके या दूर. वर्ती पूर्वजोंके संस्कृत एवं धार्मिक जीवनसे हम अपनेको संस्कृत एवं धार्मिक मान लेते हैं और वस्तुतः वैसे हैं नहीं, तो सचमुच ही अपनेको और दूसरोंको धोखा देना है । मैं अपने अल्प-स्वल्प इतिहासके अध्ययन और वर्तमान स्थितिके निरीक्षण द्वारा इस नतीजेपर पहुँचा हूँ कि अपनेको आर्य कहनेवाला भारतीय समाज वास्ततमें संस्कृति एवं धर्मसे कोसों दूर है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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