SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान-क्रम २४६ निकलकर विकास की आखिरी भूमि को पाना ही आत्मा का परम साध्य है । इस परम साध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थात्रों में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को 'विकास क्रम' या 'उत्क्रांति मार्ग' कहते हैं; और जैनशास्त्रीय परिभाषा में उसे 'गुणस्थान-क्रम' कहते हैं। इस विकास-क्रम के समय होनेवाली आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थात्रों का संक्षेप १४ भागों में कर दिया है। ये १४ भाग गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर साहित्य में 'गुणस्थान' अर्थ में संक्षेप, अोघ सामान्य और जीवसमास शब्दों का भी प्रयोग देखा जाता है । १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसराइस प्रकार पूर्वपूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थानों में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय अात्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलंबित है। स्थिरता, समाधि अंतदृष्टि, स्वभाव-रमण, स्वोन्मुखता-इन सब शब्दों का मतलब एक ही है। स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्र्य-शक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शन शक्ति का जितना अधिक विकास जितनी अधिक निर्मलता उतना ही अधिक आविर्भाव सद्विश्वास, सद्रुचि, सद्भक्ति, सत्श्रद्धा या सत्याग्रह का समझिए । दर्शन शक्ति के विकास के बाद चारित्र शक्ति के विकास का क्रम अाता है। जितनाजितना चारित्र-शक्ति का अधिक विकास उतना-उतना अधिक प्राविभाव क्षमा, संतोष, गाम्भीर्य, इन्द्रिय-जय आदि चारित्र गुणों का होता है। जैसे-जैसे दर्शन शक्ति व चारित्र शक्ति की विशुद्धि बढ़ती जाती है, तैसे-तैसे स्थिरता की मात्रा भी अधिक-अधिक होती जाती है । दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति की विशुद्धि का बढ़नाघटना, उन शक्तियों के प्रतिबंधक ( रोकनेवाले ) संस्कारों की न्यूनता-अधिकता या मन्दता-तीव्रता पर अवलंबित है। प्रथम तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति व चरित्र-शक्ति का विकास इसलिए नहीं होता कि उनमें उन शक्तियों के प्रतिबंधक संस्कारों की अधिकता या तीव्रता है। चतुर्थ आदि गुण स्थानों में वे ही प्रतिबन्धक संस्कार कम (मन्द) हो जाते हैं। इससे उन गुणस्थानों में शक्तियों का विकास आरम्भ हो जाता है । ___इन प्रतिबन्धक ( कषाय ) संस्कारों के स्थूल दृष्टि से ४ विभाग किये हैं। ये विभाग उन काषायिक संस्कारों की विपाक शक्ति के तरतम-भाव पर आश्रित हैं । उनमें से पहला विभाग—जो दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है-उसे दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी कहते हैं । शेष तीन विभाग चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक है। उनको यथाक्रम अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy