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________________ २४६ जैन धर्म और दर्शन विषय-विभाग इस ग्रंथ के विषय के मुख्य चार विभाग हैं-(१) बन्धाधिकार, (२) उदयाधिकार, (३) उदोरणाधिकार और (४) सत्ताधिकार ।। _ बन्धाधिकार में गुणस्थान-क्रम को लेकर प्रत्येक गुणस्थान-वर्ती जीवों की बन्ध योग्यता को दिखाया है। इसी प्रकार उदयाधिकार में, उनकी उदय-संबन्धी योग्यता को, उदीरणाधिकार में उदीरणा संवन्धी योग्यता को और सत्ताधिकार में सत्ता संबन्धी योग्यता को दिखाया है । उक्त चार अधिकारों की घटना जिस वस्तु पर की गई है, इस वस्तु-गुणस्थान-क्रम का नाम निर्देश भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कर दिया गया है । अतएव, इस ग्रन्थ का विषय, पाँच भागों में विभाजित हो गया है । सबसे पहले, गुणस्थान-क्रम का निर्देश और पीछे क्रमशः पूर्वोक्त चार अधिकारी। 'कमस्तव' नाम रखने का अभिप्राय __आध्यात्मिक विद्वानों की दृष्टि, सभी प्रवृतियों में आत्मा की ओर रहती है। वे, करें कुछ भी पर उस समय अपने सामने एक ऐसा आदर्श उपस्थित किये होते हैं कि जिससे उनकी आध्यात्मिक महत्त्वाभिलाषा पर जगत के आकर्षण का कुछ भी असर नहीं होता। उन लोगों का अटल विश्वास है कि 'ठीक-ठीक लक्षित दिशा की ओर जो जहाज चलता है वह, बहुत कर विघ्न-बाधाओं का - शिकार नहीं होता ।' यह विश्वास, कर्मग्रन्थ के रचयिता आचार्य में भी था इससे उन्होंने ग्रन्थ-रचना विषयक प्रवृत्ति के समय भी महान् आदर्श को अपनी नजर के सामने रखना चाहा । ग्रन्थकार की दृष्टि में आदर्श थे भगवान् महावीर । भगवान् महावीर के जिस कर्मक्षय रूप असाधारण गुण पर ग्रन्थकार मुग्ध हुए थे उस गुण को उन्होंने अपनी कृति द्वारा दर्शाना चाहा । इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपने आदर्श भगवान् महावीर की स्तुति के बहाने से की है। इस ग्रन्थ में मुख्य वर्णन, कर्म के बन्धादि का है, पर वह किया गया है स्तुति के बहाने से । अतएव, प्रस्तुत ग्रन्थ का अर्थानुरूप नाम कर्मस्तव रखा गया है। ग्रन्थ रचना का आधार इस ग्रन्थ की रचना 'प्राचीन कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्म ग्रन्थ के आधार पर हुई है । उसका और इसका विषय एक ही है । भेद इतना ही है कि इसका परिमाण प्राचीन ग्रन्थ से अल्प है। प्राचीन में ५५ गाथाएँ हैं, पर इसमें ३४ । जो बात प्राचीन में कुछ विस्तार से कही है उसे इसमें परिमित शब्दों के द्वारा कह दिया है । यद्यपि व्यवहार में प्राचीन कर्मग्रन्थ का नाम 'कर्मस्तव' है, पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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