SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद २३३ कि चेतन के स्वतन्त्र अस्तित्व के सिवाय जीवधारियों के देह की विलक्षण रचना किसी तरह बन नहीं सकती। वे अन्य भौतिकवादियों की तरह मस्तिष्क को ज्ञान की जड़ नहीं समझते, किन्तु उसे ज्ञान के आविर्भाव का साधन मात्र समझते हैं। ____ डा. जगदीशचन्द्र बोस, जिन्होंने सारे वैज्ञानिक संसार में नाम पाया है, को खोज से यहाँ तक निश्चय हो गया है कि वनस्पतियों में भी स्मरण-शक्ति विद्यमान है । बोस महाशय ने अपने आविष्कारों से स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व मानने के लिए वैज्ञानिक संसार को मजबूर किया है। (छ) पुनर्जन्म-नीचे अनेक प्रश्न ऐसे हैं कि जिनका पूरा समाधान पुनर्जन्म माने बिना नहीं होता । गर्भ के प्रारम्भ से लेकर जन्म तक बालक को जो-जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे सब उस बालक की कृति के परिणाम हैं या उसके माता-पिता की कृति के ? उन्हें बालक की इस जन्म की कृति का परिणाम नहीं कह सकते, क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा-बुरा कुछ भी काम नहीं किया है। यदि माता-पिता की कृति का परिणाम कहें तो भी असंगत जान पड़ता है, क्योंकि माता-पिता अच्छा या बुरा कुछ भी करें उसका परिणाम बिना कारण बालक को क्यों भोगना पड़े ? बालक जो कुछ सुख-दुःख भोगता है वह यों ही बिना कारण भोगता है-यह मानना तो अज्ञान की पराकाष्ठा है, क्योंकि बिना कारण किसी कार्य का होना असम्भव है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता के आहार विहार का, विचार-व्यवहार का और शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं का असर बालक पर गर्भावस्था से ही पड़ना शुरू होता है तो फिर भी सामने यह प्रश्न होता है कि बालक को ऐसे माता-पिता का संयोग क्यों हुआ ? और इसका क्या समाधान है कि कभी-कभी बालक की योग्यता माता-पिता से बिलकुल ही जुदा प्रकार की होती है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जाते हैं कि माता-पिता बिलकुल अपढ़ होते हैं और लड़का पूरा शिक्षित बन जाता है। विशेष क्या ? यहाँ तक देखा जाता है कि किन्हीं-किन्हीं माता-पिताओं की रुचि, जिस बात पर बिलकुल ही नहीं होती उसमें बालक सिद्धहस्त हो जाता है। इसका कारण केवल अासपास की परिस्थिति ही नहीं मानी जा सकती, क्योंकि समान परिस्थिति और बराबर देखभाल होते हुए भी अनेक विद्यार्थियों में विचार व व्यवहार की भिन्नता १ इन दोनों चैतन्यवादियों के विचार की छाया, संवत् १६६१ के ज्येष्ठ मास के, १९६२ मार्गशीर्ष मास के और १६६५ के भाद्रपद मास के 'वसन्त' पत्र में प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy