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________________ कर्मवाद २१७ जैन समाज के लिए इतना निःसंकोच कहा जा सकता है कि उसने तत्त्व-ज्ञान के प्रदेश में भगवान् महावीर के उपदिष्ट तत्त्वों से न तो अधिक गवेषणा की है और न ऐसा सम्भव ही था। परिस्थिति के बदल जाने से चाहे शास्त्रीय भाषा और प्रतिपादन शैली, मूल प्रवर्तक की भाषा और शैली से कुछ बदल गई हो; परन्तु इतना सुनिश्चित है कि मूल तत्त्वों में और तत्त्व-व्यवस्था में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है । अतएव जैन-शास्त्र के नयवाद, निक्षेपवाद, स्याद्वाद, आदि अन्य वादों के समान कर्मवाद का आविर्भाव भी भगवान् महावीर से हुआ है-यह मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की जा सकती। वर्तमान जैन-पागम, किस समय और किसने रचे, यह प्रश्न एतिहासिकों की दृष्टि से भले ही विवादास्पद हो; लेकिन उनको भी इतना तो अवश्य मान्य है कि वर्तमान जैन-आगम के सभी विशिष्ट और मुख्यवाद, भगवान् महावीर के विचार की विभूति है। कर्मवाद, यह जैनों का असाधारण व मुख्यवाद है इसलिए उसके भगवान् महावीर से आविर्भूत होने के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता । भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुए २४४८ वर्ष बीते । अतएव वर्तमान कर्मवाद के विषय में यह कहना कि इसे उत्पन्न हुए ढाई हजार वर्ष हुए, सर्वथा प्रामाणिक है। भगवान् महावीर के शासन के साथ कर्मवाद का ऐसा संबन्ध है कि यदि वह उससे अलग कर दिया जाए तो उस शासन में शासनत्व (विशेषत्व) ही नहीं रहता—इस बात को जैनधर्म का सूक्ष्म अवलोकन करनेवाले सभी ऐतिहासिक भलीभाँति जानते हैं । इस जगह यह कहा जा सकता है कि 'भगवान् महावीर के समान, उनसे पूर्व, भगवान् पाश्वनाथ, नेमिनाथ श्रादि हो गए हैं। वे भी जैनधर्म के स्वतन्त्र प्रवर्तक थे और सभी ऐतिहासिक उन्हें जैनधर्म के धुरंधर नायकरूप से स्वीकार भी करते हैं । फिर कर्मवाद के आविर्भाव के समय को उक्त समय-प्रमाण से बढ़ाने में क्या आपत्ति है ? परन्तु इस पर कहना यह है कि कर्मवाद के उत्थान के समय के विषय में जो कुछ कहा जाए वह ऐसा हो कि जिसके मानने में किसी को किसी प्रकार की आनाकानी न हो। यह बात भूलना न चाहिए कि भगवान नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि जैनधर्म के मुख्य प्रवर्तक हुए और उन्होंने जैन शासन को प्रवर्तित भी किया; परन्तु वर्तमान जैन-अागम, जिन पर इस समय जैनशासन अवलम्बित है वे उनके उपदेश की सम्पत्ति नहीं । इसलिए कर्मवाद के समुत्थान का ऊपर जो समय दिया गया है उसे अशङ्कनीय समझना चाहिए । दूसरा प्रश्न- यह है कि कमवाद का आविर्भाव किस प्रयोजन से हुआ इसके उत्तर में निम्नलिखित तीन प्रयोजन मुख्यतया बतलाए जा सकते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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