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________________ कर्मतत्त्व २११ मोक्षवादी गौणमुख्यभाव से एकमत ही हैं पर कर्मतत्त्व के स्वरूप के बारे में ऊपर निर्दिष्ट खास कर्मचिन्तक वर्ग का जो मन्तव्य है उसे जानना जरूरी है । परमाणुवादी मोक्षमार्गी वैशेषिक आदि कर्म को चेतननिष्ठ मानकर उसे चेतनधर्म बतलाते थे जब कि प्रधानवादी सांख्य-योग उसे अन्तःकरण स्थित मानकर जड़धर्म बतलाते थे। परन्तु आत्मा और परमाणु को परिणामी माननेवाले जैन चिन्तक अपनी जुदी प्रक्रिया के अनुसार कर्म को चेतन और जड़ उभय के परिणाम रूप से उभय रूप मानते थे। इनके मतानुसार आत्मा चेतन होकर भी सांख्य के प्राकृत अन्त करण की तरह संकोच विकासशील था, जिसमें कर्मरूप विकार भी संभव है और जो जड़ परमाणुओं के साथ एकरस भी हो सकता है। वैशेषिक आदि के मतानुसार कर्म चेतनधर्म होने से वस्तुतः चेतन से जुदा नहीं और सांख्य के अनुसार कर्म प्रकृति धर्म होने से वस्तुतः जड़ से जुदा नहीं। जब कि जैन चिन्तकों के मतानुसार कर्मतत्त्व चेतन और जड़ उभय रूप ही फलित होता है जिसे वे भाव और द्रव्यकर्म भी कहते हैं। यह सारी कर्मतत्त्व संबंधी प्रक्रिया इतनी पुरानी तो अवश्य है जब कि कर्मतत्त्व के चिन्तकों में परस्पर विचारविनिमय अधिकाधिक होता था। वह समय कितना पुराना है यह निश्चय रूप से तो कहा ही नहीं जा सकता पर जैनदर्शन में कर्मशास्त्र का जो चिरकाल से स्थान है, उस शास्त्र में जो विचारों की गहराई, शृंखलाबद्धता तथा सूक्ष्मातिसक्ष्म भावों का असाधारण निरूपण है इसे ध्यान में रखने से यह बिना माने काम नहीं चलता कि जैनदर्शन की विशिष्ट कर्मविद्या भगवान् पार्श्वनाथ के पहले अवश्य स्थिर हो चुकी थी। इसी विद्या के धारक कर्मशास्रज्ञ कहलाए और यही विद्या प्राग्रायणीय पूर्व तथा कर्मप्रवाद पूर्व के नाम से विश्रुत हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्वशब्द का मतलब भगवान् महावीर के पहले से चला आनेवाला शास्त्रविशेष है। निःसंदेह ये पूर्व वस्तुतः भगवान् पाश्वनाथ के पहले से ही एक या दूसरे रूप में प्रचलित रहे । एक ओर जैन चिन्तकों ने कर्मतत्त्व के चिन्तन की ओर बहुत ध्यान दिया जब कि दूसरी ओर सांख्य-योग ने ध्यानमार्ग की ओर सविशेष ध्यान दिया | आगे जाकर जब तथागत बुद्ध हुए तब उन्होंने भी ध्यान पर ही अधिक भार दिया । पर सबों ने बिरासत में मिले कर्मचिन्तन को अपना रखा । यही सबब है कि सूक्ष्मता और विस्तार में जैन कर्मशास्त्र अपना असाधारण स्थान रखता है। फिर भी सांख्य-योग, बौद्ध आदि दर्शनों के कर्मचिन्तनों के साथ उसका बहुत कुछ साम्य है और मूल में एकता भी है जो कर्मशास्त्र के अभ्यासियों के लिए ज्ञातव्य है। ई० १६४१ ] [पंचम कर्मग्रन्थ का 'पूर्वकथन' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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