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________________ या पूर्ण उदय देखा गया है या संभव हुआ है तो वह मनुष्यकी आत्मामें ही। देश, काल, जाति, भाषा, वेश, श्राचार आदिकी सीमाओंमें और सीमाओसे परे भी सच्चे धर्मकी वृत्ति अपना काम करती है। वही काम धर्म-बीजका पूर्ण विकास है। इसी विकासको लक्ष्यमें रखकर एक ऋषिने कहा कि 'कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः' अर्थात् जीना चाहते हो तो कर्तव्य कर्म करते ही करते जियो । कर्तव्य कर्मकी संक्षेपमें व्याख्या यह है कि "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यचित् धनम्' अर्थात् तुम भोग करो पर बिना त्यागके नहीं और किसीके सुख या सुखके साधनको लूटनेकी वृत्ति न रखो। सबका सारांश यही है कि जो सामुदायिक वृत्ति जन्मसिद्ध है उसका बुद्धि और विवेकपूर्वक अधिकाधिक ऐसा विकास किया जाए कि वह सबके हितमें परिणत हो । यही धर्म-बीजका मानव-जातिमें संभवित विकास है। ऊपर जो वस्तु संक्षेपमें सूचित की गई है, उसीको हम दूसरे प्रकारसे अर्थात् तत्त्वचिन्तमके ऐतिहासिक विकास-क्रमकी दृष्टिसे भी सोच सकते हैं। यह निर्विवाद तथ्य है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओंसे लेकर बड़ेसे बड़े पशु-पक्षी जैसे प्राणियोंतकमें जो जिजीविषामूलक अमरत्वकी वृत्ति है, वह दैहिक या शारीरिक जीवन तक ही सीमित है। मनुष्येतर प्राणी सदा जीवित रहना चाहते हैं पर उनकी दृष्टि या चाह वर्तमान दैहिक जीवनके आगे नहीं जाती। वे आगे या पीछेके जीवन के बारेमें कुछ सोच ही नहीं सकते। पर जहाँ मनुष्यत्वका प्रारंभ हुआ वहाँ से इस वृत्तिमें सीमा-भेद हो जाता है। प्राथमिक मनुष्य दृष्टि चाहे जैसी रही हो या अब भी है, तो भी मनुष्य-जातिमें हजारों वर्षके पूर्व एक ऐसा समय आया जब उसने वर्तमान दैहिक जीवनसे आगे दृष्टि दौड़ाई । मनुष्य वर्तमान दैहिक अमरत्वसे संतुष्ट न रहा, उसने मरणोत्तर जिजीविषामुलक अमरत्वकी भावनाको चित्तमें स्थान दिया और उसीको सिद्ध करने के लिए वह नाना प्रकारके उपायोंका अनुष्ठान करने लगा। इसीमेंसे बलिदान, यश, व्रतनियम, तप, ध्यान, ईश्वर-भक्ति, तीर्थ-सेवन, दान आदि विविध धर्म मागोंका निमोण तथा विकास हुआ। यहाँ हमें समझना चाहिए कि मनुष्यकी दृष्टि वर्तमान जन्मसे आगे भी सदा जीवित रहनेकी इच्छासे किसी न किसी उपायका श्राश्रय लेती रही है। पर उन उपायोंमें ऐसा कोई नहीं है जो सामुदायिक वृत्ति या सामुदायिक भावनाके सिवाय पूर्ण सिद्ध हो सके । यज्ञ और दानको तो बात ही क्या, एकांत सापेक्ष माना जानेवाला ध्यानमार्ग भी आखिरको किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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