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आवश्यक क्रिया
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रुचि के परिवर्तन के साथ-साथ 'आवश्यक'-क्रियोपयोगी सूत्र की संख्या में तथा भाषा में किस प्रकार परिवर्तन होता गया है। ___ यहाँ यह सूचित कर देना अनुपयुक्त न होगा कि आजकल दैवसिक-प्रतिक्रमण में 'सिद्धाणं बुद्धाणं' के बाद जो श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग किया जाता है और एक-एक स्तुति पढ़ी जाती है, वह भाग कम से कम श्री हरिभद्रसरि के समय में प्रचलित प्रतिक्रमण-विधि में सन्निविष्ट न था; क्योंकि उन्होंने अपनी टीका में जो विधि दैवसिक-प्रतिक्रमण की दी है, उसमें 'सिद्धाणं' के बाद प्रतिलेखन वन्दन करके तीन स्तुति पढ़ने का ही निर्देश किया है—(श्रावश्यक-वृत्ति, पृ० ७६०)।
विधि-विषयक सामाचारी-भेद पुराना है; क्योंकि मूल-टीकाकार-संमत विधि के अलावा अन्य विधि का भी सूचन श्री हरिभद्रसूरि ने किया है (आवश्यकवृत्ति, पृ० ७६३)।
उस समय पाक्षिक-प्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग प्रचलित नहीं था; पर शय्यादेवता का काउस्सग्ग किया जाता था । कोई-कोई चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में भी शय्यादेवता का काउस्सग्ग करते थे और क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग तो चातुमासिक और सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण में प्रचलित था-आवश्यक-वृत्ति, पृ० ४६४; भाष्य गाथा २३३ ।
इस जगह मुख पर मुँहपत्ती बाँधनेवालों के लिए यह बात खास अर्थसूचक है कि श्री भद्रबाहु के समय में भी काउस्सग्ग करते समय मुँहपत्ती हाथ में रखने का ही उल्लेख है—आवश्यक-नियुक्ति, पृ० ७६७, गाथा १५४५ ।
मूल 'आवश्यक' के टीका-ग्रन्थ-'आवश्यक', यह साधु-श्रावक-उभय की महत्त्वपूर्ण क्रिया है । इसलिए 'अावश्यक-सूत्र' का गौरव भी वैसा ही है । यही कारण है कि श्री भद्रबाहु स्वामी ने दस नियुक्ति रचकर तत्कालीन प्रथा के अनुसार उसकी प्राकृत-पद्य-मय टीका लिखी। यही 'श्रावश्यक' का प्राथमिक टीकाग्रन्थ है। इसके बाद संपूर्ण 'आवश्यक' के ऊपर प्राकृत-पद्य-मय भाष्य बना, जिसके कर्ता अज्ञात हैं । अनन्तर चूर्णी बनी, जो संस्कृत-मिश्रित प्राकृत-गद्य-मय है और जिसके कर्ता संभवतः जिनदास गणि हैं। . अब तक भाषा-विषयक यह लोक-रुचि कुछ बदल गई थी। यह देखकर समय-सूचक प्राचार्यों ने संस्कृत-भाषा में भी टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया था । तदनुसार 'श्रावश्यक' के ऊपर भी कई संस्कृत-टीकाएँ बनी, जिनका सूचन श्री हरिभद्र सूरि ने इस प्रकार किया है
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