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________________ जैन धर्म और दर्शन कहता है कि 'श्रावश्यक-क्रिया' आत्मा को प्राप्त भाव शुद्धि से गिरने नहीं देती, उसको अपूर्व भाव भी प्राप्त कराती है तथा क्षायोपशिक-भाव-पूर्वक की जानेवाली क्रिया से पतित आत्मा की भी फिर से भाववृद्धि होती है । इस कारण गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए 'श्रावश्यक-क्रिया' का आचरण अत्यन्त उपयोगी है। व्यवहार में आरोग्य, कौटुम्बिक नीति, सामाजिक नीति इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। आरोग्य के लिए मुख्य मानसिक प्रसन्नता चाहिए । यद्यपि दुनियाँ में ऐसे अनेक साधन हैं, जिनके द्वारा कुछ-न-कुछ मानसिक प्रसन्नता प्राप्त की जाती है, पर विचार कर देखने से यह मालूम पड़ता है कि स्थायी मानसिक प्रसन्नता उन पूर्वोक्त तत्त्वों के सिवाय किसी तरह प्राप्त नहीं हो सकती, जिनके ऊपर 'श्रावश्यकक्रिया' का आधार है। कौटुम्बिक नीति का प्रधान साध्य सम्पूर्ण कुटुम्ब को सुखी बनाना है । इसके लिए छोटे-बड़े सब में एक दूसरे के प्रति यथोचित विनय, आज्ञा-पालन, नियमशीलता और अप्रमाद का होना जरूरी है। ये सब गुण 'श्रावश्यक-क्रिया' के आधारभूत पूर्वोक्त तत्त्वों के पोषण से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। __सामाजिक नीति का उद्देश्य समाज को सुव्यवस्थित रखना है । इसके लिए विचार-शीलता, प्रामाणिकता, दीर्घदर्शिता और गम्भीरता आदि गुण जीवन में आने चाहिए, जो 'आवश्यक-क्रिया' के प्राणभूत छह तत्त्वों के सिवाय किसी तरह नहीं पा सकते । इस प्रकार विचार करने से यह साफ जान पड़ता है कि शास्त्रीय तथा व्यवहारिक-दोनों दृष्टि से 'श्रावश्यक-क्रिया' का यथोचित अनुष्ठान परम लाभदायक है। प्रतिक्रमण शब्द की रूढ़ि प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रति+क्रमण = प्रतिक्रमण'. ऐसी है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ 'पीछे फिरना', इतना ही होता है, परन्तु रूढ़ि के बल से 'प्रतिकमण' शब्द सिर्फ चौथे 'आवश्यक' का तथा छह आवश्यक के समुदाय का भी बोध कराता है। अन्तिम अर्थ में उस शब्द की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई गुणवृद्धया ततः कुर्याक्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ॥७॥ -ज्ञानसार, क्रियाष्टक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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