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________________ १८८० जैन धर्म और दर्शन रूप में करने के लिए इस के दोषों का परिहार करना चाहिए। वे घोटक आदि दोष संक्षेप में उन्नीस हैं (श्रा० नि०, गा० १५४६-१५४७) । कायोत्सर्ग से देह की जड़ता और बुद्धि की जड़ता दूर होती है, अर्थात् वात आदि धातुत्रों की विषमता दूर होती है और बुद्धि की मन्दता दूर होकर विचारशक्ति का विकास होता है। सुख-दुःख तितिक्षा अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के संयोगों में समभाव से रहने की शक्ति कायोत्सर्ग से प्रकट होती है । भावना और ध्यान का अभ्यास भी कायोत्सर्ग से ही पुष्ट होता है । प्रतिचार IT चिन्तन भी कायोत्सर्ग में ठीक-ठीक हो सकता है । इस प्रकार देखा जाय तो कायोत्सर्ग बहुत महत्त्व की क्रिया है । कार्योत्सर्ग के अन्दर लिये जानेवाले एक श्वासोच्छ्रास का काल-परिमाण श्लोक के एकपाद के उच्चारण के काल - परिमाण जितना कहा गया है । (६) त्याग करने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं । त्यागने योग्य वस्तुएँ (१) द्रव्य और (२) भावरूप से दो प्रकार की हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुएँ द्रव्यरूप हैं और अज्ञान, असंयम आदि वैभाविक परिणाम भावरूप हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुओं का त्याग अज्ञान, असंयम आदि के त्याग द्वारा भाव त्याग-पूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से ही होना चाहिये । जो द्रव्यत्याग भावत्याग पूर्वक तथा भावत्याग के लिए नहीं किया जाता, उस ग्रात्मा को गुण प्राप्ति नहीं होती । (१) श्रद्धान, (२) ज्ञान, (३) वंदन, ४) अनुपालन, (५) अनुभाषण और (६) भाव, इन छः शुद्धियों के सहित किया जानेवाला प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है (०, पृ० ८४७ )। 1 प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण-धारण है, सो इसलिए कि उससे अनेक गुण प्राप्त होते हैं । प्रत्याख्यान करने से खव का निरोध अर्थात् संवर होता है । संबर से तृष्णा का नाश, तृष्णा के नाश से निरुपम समभाव और ऐसे समभाव से क्रमशः मोक्ष का लाभ होता है क्रम की स्वाभाविकता तथा उपपत्ति—जो अन्तर्दृष्टि वाले हैं, उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव - सामायिक प्राप्त करना है । इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार में समभाव का दर्शन होता है । अन्तर्दृष्टि वाले जब किसी को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते हैं, तब वे उनके वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं । इस तरह वे समभाव - स्थित साधु पुरुषों को वन्दन-नमस्कार करना भी नहीं भूलते । अन्तर्दृष्टिवालों के जीवन में ऐसी स्फूर्त्ति - श्रप्रमत्तता होती है कि कदाचित् वे पूर्ववासना वश या कुसंसर्ग वश समभाव से गिर जाएँ, तब भी उस अप्रमत्तता के कारण प्रतिक्रमण करके वे अपनी पूर्व-प्राप्त स्थिति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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