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________________ आवश्यक क्रिया १७७ वाला होने के कारण 'श्रावासक' भी कहलाता है। वैदिकदर्शन में 'आवश्यक' समझे जानेवाले कर्मों के लिए 'नित्यकर्म शब्द प्रसिद्ध है। जैनदर्शन में 'अवश्य-कर्तव्य' ध्रुव, निग्रह, विशोधि, अध्ययनषटक, वर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जो कि 'श्रावश्यक' शब्द के समानार्थक-पर्याय हैं (आ० वृत्ति, पृ० ५३ )। सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का स्वरूप-स्थूल दृष्टि से 'श्रावश्यक क्रिया' के छह विभाग-भेद किये गए हैं--(१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । - (१) राग और द्वेष के वश न होकर समभाव-मध्यस्थ-भाव में रहना अर्थात् सबके साथ अात्मतुल्य व्यवहार करना 'सामायिक' है (आ० नि०, गा० १०३२) । इसके (१) सम्यक्त्वसामायिक, (२) श्रुतसामायिक और (३) चारित्र सामायिक, ये तीन भेद हैं, क्योंकि सम्यक्त्व द्वारा, श्रुत द्वारा या चारित्र द्वारा ही समभाव में स्थिर रहा जा सकता है। चारित्रसामायिक भी अधिकारी की अपेक्षा से (१) देश और (२) सर्व, यों दो प्रकार का है। देश सामायिक चारित्र गृहस्थों को और सर्वसामायिकचारित्र साधुओं को होता है (श्रा०नि०, ' गा०७६६ )। समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित आदि शब्द सामायिक के पर्याय हैं ( श्रा० नि०, गा० १०३३ )। (२चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकर, जो कि सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति करने रूप है। इसके (१) द्रव्य और (२) भाव, ये दो भेद हैं। पुष्प आदि सात्त्विक वस्तुओं के द्वारा तीर्थंकरों की पूजा करना 'द्रव्यस्तव' और उनके वास्तविक गुणों का कीर्तन करना 'भावस्तव' है (श्रा०, पृ० ४६२)। अधिकारी--विशेष गृहस्थ के लिए द्रव्यस्तव कितना लाभदायक है, इस बात को विस्तारपूर्वक आवश्यक नियुक्ति, पृ० ४६२-४६३ में दिखाया है। (३) वंदन-मन, वचन शरीर का वह व्यापार वंदन है, जिससे पूज्यों के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है । शास्त्र में वंदन के चिति-कर्म, कृति-कर्म, पूजाकर्म आदि पर्याय प्रसिद्ध हैं (प्रा०नि०, गा० ११०३)। वंदन के यथार्थ स्वरूप जानने के लिए वंद्य कैसे होने चाहिए ? वे कितने प्रकार के हैं ? कौनकौन अवंद्य है ? अवंद्य-वंदन से क्या दोष है ? वंदन करने के समय किन-किन दोषों का परिहार करना चाहिए, इत्यादि बातें जानने योग्य हैं। द्रव्य और भाव उभय-चारित्रसम्पन्न मुनि ही वन्द्य हैं (श्रा० नि०, गा० ११०६ ) । वन्द्य मुनि (१) प्राचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) स्थविर और (५) रत्नाधिक रूप से पाँच प्रकार के हैं (प्रा० नि०, गा० ११६५ )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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