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________________ आवश्यक क्रिया १७५ .श्रावकों में 'आवश्यक' का प्रचार वैकल्पिक है। अर्थात् जो भावुक और नियमवाले होते हैं, वे अवश्य करते हैं और अन्य श्रावकों की प्रवृत्ति इस विषय में ऐच्छिक है । फिर भी यह देखा जाता है कि जो नित्य 'श्रावश्यक' नहीं करता, वह भी पक्ष के बाद, चतुर्मास के बाद या अाखिरकार संवत्सर के बाद, उसको यथासम्भव अवश्य करता है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में 'आवश्यक क्रिया' का इतना आदर है कि जो व्यक्ति अन्य किसी समय धर्मस्थान में न जाता हो, वह तथा छोटे-बड़े बालक-बालिकाएँ भी बहुधा साम्वत्सरिक पर्व के दिन धर्मस्थान में 'अावश्यक-क्रिया' करने के लिए एकत्र हो ही जाते हैं और उस क्रिया को करके सभी अपना अहोभाग्य समझते हैं। इस प्रवृत्ति से यह स्पष्ट है कि 'श्रावश्यक-क्रिया' का महत्त्व श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में कितना अधिक है। इसी सबब से सभी लोग अपनी सन्तति को धार्मिक शिक्षा देते समय सबसे पहिने 'आवश्यकक्रिया' सिखाते हैं। जन-समुदाय की सादर प्रवृत्ति के कारण 'आवश्यक-क्रिया' का जो महत्त्व प्रमणित होता है, उसको ठीक-ठीक समझाने के लिए 'आवश्यक-क्रिया' किसे कहते हैं ? सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का क्या स्वरूप है ? उनके भेदक्रम की उपपत्ति क्या है ? 'आवश्यक-क्रिया' आध्यात्मिक क्यों है ? इत्यादि कुछ मुख्य प्रश्नों के ऊपर तथा उनके अन्तर्गत अन्य प्रश्नों के ऊपर इस जगह विचार करना आवश्यक है। परन्तु इसके पहिले यहाँ एक बात बतला देना जरूरी है । और वह यह है कि 'श्रावश्यक-क्रिया' करने की जो विधि चूर्णि के जमाने से भी बहुत प्राचीन थी और जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रसूरि-जैसे प्रतिष्ठित आचार्य ने अपनी प्रावश्यक-वृत्ति पृ०, ७६० में किया है। वह विधि बहुत अंशों में अपरिवर्तित रूप से ज्यों की त्यों जैसी श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय में चली आती है, वैसी स्थानकवासी-सम्प्रदाय में नहीं है। यह बात तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों की सामाचारी देखने से स्पष्ट मालूम हो जाती है । स्थानकवासी-सम्प्रदाय की सामाचारी में जिस प्रकार 'श्रावश्यक-क्रिया' में बोले जानेवाले कई प्राचीन सूत्रों की, जैसे:-पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं बुद्धाणं, अरिहंतचेइयाणं, आयरियउवज्झाए, अब्भुटियोऽहं, इत्यादि की काट-छाँट कर दी गई है, इसी प्रकार उसमें प्राचीन विधि की भी काट-छाँट नजर आती है। इसके विपरीत तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि की सामाचारी में 'आवश्यक' के प्राचीन सूत्र तथा प्राचीन विधि में कोई परिवर्तन किया हुआ नजर नहीं आता । अर्थात् उसमें 'सामायिक-श्रावश्यक' से लेकर यानी प्रतिक्रमण की स्थापना से लेकर 'प्रत्याख्यान' पर्यन्त के छहों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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