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जैन धर्म और दर्शन
अखण्ड रूप में स्पर्श
वृक्षरूप से समझते हैं तब उपर्युक्त सत्र अवस्थाओं में प्रवाहित होनेवाला पूर्ण जीवन-व्यापार ही अखण्ड रूप से मन में श्राता है पर जब हम उसी जीवनव्यापार के परस्पर भिन्न ऐसे क्रमभावी मूल, अंकुर, स्कन्ध आदि एक-एक अंश को ग्रहण करते हैं तब वे परिमित काल- लक्षित श्रंश ही हमारे मन में श्राते हैं । इस प्रकार हमारा मन कभी तो समूचे जीवन व्यापार को करता है और कभी-कभी उसे खण्डित रूप में एक-एक अंश के द्वारा । परीक्षण करके देखने से साफ जान पड़ता है कि न तो अखण्ड जीवन व्यापार ही एक मात्र पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक मात्र है और न खण्डित अंश ही पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक । भले ही उस अखण्ड में सारे खण्ड और सारे खण्डों में वह एक मात्र अखण्ड समा जाता हो; फिर भी वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो अखण्ड और खण्ड दोनों में ही पर्यवसित होने के कारण दोनों पहलुनों से गृहित होता है । जैसे वे दोनों पहलू अपनी-अपनी कक्षा में यथार्थ होकर भी पूर्ण तभी बनते हैं जब समन्वित किये जाएँ, वैसे ही अनादि श्रनन्त काल-प्रवाह रूप वृक्ष का ग्रहण नित्यत्व का व्यञ्जक है और उसके घटक अंशों का ग्रहण अनित्यत्व या क्षणिकत्व का द्योतक है । आधारभूत नित्य प्रवाह के सिवाय न तो अनित्य घटक संभव है और न नित्य घटकों के सिवाय वैसा नित्य प्रवाह ही । श्रतएव एक मात्र नित्यत्व को या एक मात्र अनित्यत्व को वास्तविक कहकर दूसरे विरोधी अंश को वास्तविक कहना ही नित्य नित्य वादों की टक्कर का बीज है; जिसे अनेकान्त दृष्टि हटाती है ।
कान्त दृष्टि अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व वाद की पारस्परिक टक्कर को भी मिटाती है । वह कहती है कि वस्तु का वही रूप प्रतिपान्य हो सकता है। जो संकेत का विषय बन सके । सूक्ष्मतम बुद्धि के द्वारा किया जानेवाला संकेत भी स्थूल अंश को ही विषय कर सकता है । वस्तु के ऐसे परिमित भाव हैं जिन्हें संकेत के द्वारा शब्द से प्रतिपादन करना संभव नहीं । इस अर्थ में प्रखण्ड सत् या निरंश क्षण अनिर्वचनीय ही हैं जब कि मध्यवर्ती स्थूल भाव निर्वचनीय भी हो सकते हैं । अतएव समग्र विश्व के या उसके किसी एक तत्त्व के बारे में जो अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व के विरोधी प्रवाद हैं वे वस्तुतः अपनीअपनी कक्षा में यथार्थ होने पर भी प्रमाण तो समूचे रूप में ही हैं ।
एक ही वस्तु की भावरूपता और प्रभावरूपता भी विरुद्ध नहीं । मात्र विधिमुख से या मात्र निषेधमुख से ही वस्तु प्रतीत नहीं होती दूध, दूध रूप से भी प्रतीत होता है और दधि या दधिभिन्न रूप से भी । ऐसी दशा में वह भाव प्रभाव उभय रूप सिद्ध हो जाता है और एक ही वस्तु में भावत्व या अभा
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