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अनेकान्तवाद मतों-दर्शनों का जन्म हुआ; जो अपने विरोधीवाद की आधारभूत भूमिका की सत्यता की कुछ भी परवाह न करने के कारण एक दूसरे के प्रहार में ही चरितार्थता मानने लगे। सद्वाद-असद्वाद
सद्वाद अद्वैतगामी हो या द्वैतगामी जैसा कि सांख्यादि का, पर वह कार्यकारण के अभेदमूलक सत्कार्यवाद को बिना माने अपना मूल लक्ष्य सिद्ध ही नहीं कर सकता; जब कि असद्वाद क्षणिकगामी हो जैसे बौद्धों का, स्थिरगामी हो या नित्यगामी हो जैसे वैशेषिक आदि का-पर वह असत्कार्यवाद का स्थापन बिना किये अपना लक्ष्य स्थिर कर ही नहीं सकता। अतएव सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद की पारस्परिक टक्कर हुई । अद्वैतगामी और द्रुतगामी सद्वाद में से जन्मी हुई कूटस्थता जो कालिक नित्यता रूप है और विभुता जो देशिक व्यापकता रूप है उनकी-देश और कालकृत निरंश अंशवाद अर्थात् निरंश क्षणवाद के साथ टक्कर हुई, जो कि वस्तुतः सद्दर्शन के विरोधी दर्शन में से फलित होता है। निर्वचनीय-अनिर्वचनीय वाद____ एक तरफ से सारे विश्व को अखण्ड और एक तत्त्वरूप माननेवाले और दूसरी तरफ से उसे निरंश अंशपुंज माननेवाले-अपने-अपने लक्ष्य की सिद्धि तभी कर सकते थे जब कि वे अपने अभीष्ट तत्त्व को अनिर्वचनीय अर्थात् अनभिलाप्य-शब्दागोचर मानें, क्योंकि शब्द के द्वारा निर्वचन मानने पर न तो अखण्ड सत् तत्त्व की सिद्धि हो सकती है और न निरंश भेद तत्त्व की । निर्वचन करना ही मानों अखण्डता या निरंशता का लोप कर देना है । इस तरह अखण्ड और निरंशवाद में से अनिर्वचनीयवाद आप ही आप फलित हुा । पर उस वाद के सामने लक्षणवादी वैशेषिक आदि तार्किक हुए, जो ऐसा मानते हैं कि वस्तु मात्र का निर्वचन करना या लक्षण बनाना शक्य ही नहीं बल्कि वास्तविक भी हो सकता है । इसमें से निर्वचनीयत्ववाद का जन्म हुआ और तब अनिर्वचनीय तथा निर्वचनीयवाद आपस में टकराने लगे | हेतुवाद-अहेतुवाद आदि
इसी प्रकार कोई मानते थे कि प्रमाण चाहे जो हो पर हेतु अर्थात् तर्क के बिना किसी से अन्तिम निश्चय करना भयास्पद है । जब दूसरे कोई मानते थे कि हेतुवाद स्वतन्त्र बल नहीं रखता । ऐसा बल अागम में ही होने से वही मूर्धन्य प्रमाण है । इसी से वे दोनों वाद परस्पर टकराते थे। दैवज्ञ कहता था कि
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