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कान्तवाद की मर्यादा
जैनधर्म का मूल -
कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्म पन्थ, उसकी आधारभूत - उसके मूल प्रवर्तक पुरुष की - एक खास दृष्टि होती है; जैसे कि - शंकराचार्य की अपने मतनिरूपण में 'अद्वैत दृष्टि' और भगवान् बुद्ध की अपने धर्म-पन्थ प्रवर्तन में 'मध्यम प्रतिपदा दृष्टि' खास दृष्टि है । जैन दर्शन भारतीय दर्शनों में एक विशिष्ट दर्शन है और साथ ही एक विशिष्ट धर्म-पन्थ भी है, इसलिए उसके प्रवर्तक और प्रचारक मुख्य पुरुषों की एक खास दृष्टि उनके मूल में होनी ही चाहिए और वह है भी । यही दृष्टि अनेकान्तवाद है । तात्त्विक जैन- विचारणा अथवा आचारव्यवहार जो कुछ भी हो वह सब अनेकान्त दृष्टि के आधार पर किया जाता है । अथवा यों कहिए कि अनेक प्रकार के विचारों तथा श्राचारों में से जैन विचार और जैना चार क्या हैं ? कैसे हो सकते हैं ? इन्हें निश्चित करने व कसने की एक मात्र कसौटी भी अनेकान्त दृष्टि ही है ।
अन्त का विकास और उसका श्रेय -
जैन-दर्शन का आधुनिक मूल रूप भगवान् महावीर की तपस्या का फल है । इसलिए सामान्य रूप से यही समझा जा सकता है कि जैन-दर्शन की आधार - भूत अनेकान्त-दृष्टि भी भगवान् महावीर के द्वारा ही पहले पहल स्थिर की गई या उद्भावित की गई होगी । परन्तु विचार के विकास क्रम और पुरातन इतिहास के चिंतन करने से साफ़ मालूम पड़ जाता है कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान् महावीर से भी पुराना है | यह ठीक है कि जैन - साहित्य में अनेकान्त-दृष्टि का जो स्वरूप श्राजकल व्यवस्थित रूप से और विकसित रूप से मिलता है वह स्वरूप भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती किसी जैन या जैनतर साहित्य में नहीं पाया जाता, तो भी भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य में और उसके समकालीन बौद्धसाहित्य में अनेकान्त-दृष्टि- गर्भित बिखरे हुए विचार थोड़े बहुत मिल ही जाते हैं। इसके सिवाय भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्वनाथ हुए हैं जिनका विचार आज यद्यपि उन्हीं के शब्दों में असल रूप में नहीं पाया जाता
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