SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-संस्कृति का हृदय १४३ ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थ सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक झुकते रहे हैं। इसका फल पड़ोसी समाजों पर इतना अधिक पड़ा है कि उन्होंने भी एक या दूसरे रूप से अनेकविध सात्त्विक तपस्याएँ अपना ली हैं । और सामान्यरूप से साधारण जनता जैनों की तपस्या की ओर आदरशील रही है। यहाँ तक कि अनेक बार मुसलमान सम्राट तथा दूसरे समर्थ अधिकारियों ने तपस्या से आकृष्ट होकर जैन-सम्प्रदाय का बहुमान ही नहीं किया है बल्कि उसे अनेक सुविधाएँ भी दी हैं, मद्य-नांस आदि सात व्यसनों को रोकने तथा उन्हें घटाने के लिए जैन-वर्ग ने इतना अधिक प्रयत्न किया है कि जिससे वह व्यसनसेवी अनेक जातियों में सुसंस्कार डालने में समर्थ हुआ है । यद्यपि बौद्ध आदि दूसरे सम्प्रदाय पूरे बल से इस सुसंस्कार के लिए प्रयत्न करते रहे पर जैनों का प्रयत्न इस दिशा में आज तक जारी है और जहाँ जैनों का प्रभाव ठीकठीक है वहाँ इस स्वैरविहार के स्वतन्त्र युग में भी मुसलमान और दूसरे मांसभक्षी लोग भी खुल्लमखुल्ला मांस-मद्य का उपयोग करने में सकुचाते हैं। लोकमान्य तिलक ने ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तों से जो प्राणिरक्षा और निर्मास भोजन का आग्रह है वह जैन-परंपरा का ही प्रभाव है। जैन विचारसरणी का एक मौलिक सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक वस्तु का विचार अधिकाधिक पहलुओं और अधिकाधिक दृष्टिकोणों से करना और विवादास्पद विषय में बिलकुल अपने विरोधी पक्ष के अभिप्राय को भी उतनी ही सहानुभूति से समझने का प्रयत्न करना जितनी कि सहानुभूति अपने पक्ष की अोर हो । और अन्त में समन्वय पर ही जीवन-व्यवहार का फैसला करना । यों तो यह सिद्धान्त सभी विचारकों के जीवन में एक या दूसरे रूप से काम करता ही रहता है। इसके सिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन सकता है और न शान्तिलाभ कर सकता है। पर जैन विचारकों ने उस सिद्धान्त की इतनी अधिक चर्चा की है और उस पर इतना अधिक जोर दिया है कि जिससे कट्टर-से-कट्टर विरोधी संप्रदायों को भी कुछ-न-कुछ प्रेरणा मिलती ही रही है । रामानुज का विशिष्टाद्वैत उपनिषद् की भूमिका के ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है । जैन-परंपरा के आदर्श जैन-संस्कृति के हृदय को समझने के लिए हमें थोड़े से उन आदर्शों का परिचय करना होगा जो पहिले से आज तक जैन-परंपरा में एकसे मान्य हैं और पूजे जाते हैं। सब से पुराना श्रादर्श जैन-परंपरा के सामने ऋषभदेव और उनके परिवार का है । ऋषभदेव ने अपने जीवन का सबसे बड़ा भाग उन जवाबदेहियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy