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________________ १२६ जैन धर्म और दर्शन जड़ अज्ञान-दर्शन मोह या अविद्या ही है, इसलिए हिंसा की असली जड़ अज्ञान ही है । इस विषय में श्रात्मवादी सब परपराएँ एकमत हैं। ऊपर जो कर्म का स्वरूप बतलाया है वह जैन परिभाषा में भाव कर्म है और वह आत्मगत संस्कार विशेष है। यह भावकर्म आत्मा के इर्दगिर्द सदा वर्तमान ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भौतिक परमाणुओं को आकृष्ट करता है और उसे विशिष्ट रूप अर्पित करता है। विशिष्ट रूप प्राप्त यह भौतिक परमाणु पुंज ही द्रव्यकर्म या कार्मण शरीर कहलाता है जो जन्मान्तर में जीव के साथ जाता है और स्थूल शरीर के निर्माण की भूमिका बनता है। ऊपर-ऊपर से देखने पर मालूम होता है कि द्रव्यकर्म का विचार जैन परंपरा की कर्मविद्या में है, पर अन्य परंपरा की कर्मविद्या में वह नहीं है, परन्तु सूक्ष्मता से देखनेवाला जान सकता है कि वस्तुतः ऐसा नहीं है। सौख्य-योग, वेदान्त आदि परंपराओं में जन्मजन्मान्तरगामी सूक्ष्म या लिंग शरीर का वर्णन है। यह शरीर अन्तःकरण, अभिमान मन श्रादि प्राकृत या मायिक तत्त्वों का बना हुआ माना गया है जो वास्तव में जैन परंपरासंमत भौतिक कार्मण शरीर के ही स्थान में है। सूक्ष्म या कार्मण शरीर की मूल कल्पना एक ही है । अन्तर है तो उसके वर्णन प्रकार में और न्यूनाधिक विस्तार में एवं वर्गीकरण में. जो हजारों वर्ष से जुदा-जुदा विचार-चिंतन करने वाली परंपरात्रों में होना स्वाभाविक है। इस तरह हम देखते हैं तो अात्मवादी सब परंपरात्रों में पुनर्जन्म के कारण रूप से कर्मतत्त्व का स्वीकार है और जन्मजन्मान्तरगामी भौतिक शरीररूप द्रव्यकर्म का भी स्वीकार है । न्याय वैशेषिक परंपरा जिसमें ऐसे सूक्ष्म शरीर का कोई खास स्वीकार नहीं है उसने भी जन्मजन्मान्तरगामी अणुरूप मन को स्वीकार करके द्रव्य कर्म के विचार को अपनाया है। - पुनर्जन्म और कर्म की मान्यता के बाद जब मोक्ष की कल्पना भी तत्त्वचिंतन में स्थिर हुई तब से अभी तक की बंध-मोक्षवादी भारतीय तत्त्वचिंतकों की आत्मस्वरूप-विषयक मान्यताएँ कैसी-कैसी हैं और उनमें विकासक्रम की दृष्टि से जैन मन्तव्य के स्वरूप का क्या स्थान है. इसे समझने के लिए सक्षेप में बंधम.क्षवादी मुख्य-मुख्य सभी परंपराओं के मन्तव्यों को नीचे दिया जाता है । (१) जैन परंपरा के अनुसार श्रात्मा प्रत्येक शरीर में जुदा-जुदा है। वह स्वयं शुभाशुभ कर्म का कर्ता और कर्म के फल-सुख-दुःख आदि का भोक्ता है। वह जन्मान्तर के समय स्थानान्तर को जाता है और स्थूल देह के अनुसार संकोच विस्तार धारण करता है। यही मुक्ति पाता है और मुक्तिकाल में सांसारिक सुख-दुःख ज्ञान-अज्ञान आदि शुभाशुभ कर्म आदि भावों से सर्वथा छूट जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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