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________________ जैन धर्म का प्राण १२१ धर्म विकास का इतिहास कहता है कि उत्तरोत्तर उदय में आनेवाली नई-नई धर्म की अवस्था में उस उस धर्म की पुरानी विरोधी अवस्थाओं का समावेश अवश्य रहता है । यही कारण है कि जैनधर्म निर्ग्रन्थ धर्म भी है और श्रमण धर्म भी है । श्रमण धर्म की साम्यदृष्टि । अब हमें देखना यह है कि श्रमण धर्म की प्राणभूत साम्य भावना का जैन परम्परा में क्या स्थान है ? जैन श्रुत रूप से प्रसिद्ध द्वादशांगी या चतुर्दश पूर्व में 'सामाइय' – ' सामायिक' का स्थान प्रथम है, जो आचारांग सूत्र कहलाता है जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर के आचार-विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया उसी सूत्र में देखने को मिलता है। इसमें जो कुछ कहा गया है उस सत्र में साम्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है। 'सामाइय' इस प्राकृत या मागधी शब्द का संबंध साम्य, समता या सम से है । साम्यदृष्टिमूलक और साम्यदृष्टिपोषक जो-जो आचार-विचार हों वे सब सामाइय-सामायिक रूप से जैन परम्परा में स्थान पाते हैं । जैसे ब्राह्मण परम्परा में संध्या एक आवश्यक कर्म है वैसे ही जैन परम्परा में भी गृहस्थ और त्यागी सत्र के लिए छः श्रावश्यक कर्म बतलाए हैं जिनमें मुख्य सामाइय है । अगर सामाइय न हो तो और कोई आवश्यक सार्थक नहीं है गृहस्थ या त्यागी अपनेअपने अधिकारानुसार जब जब धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तब-तब वह 'करेमि भंते ! सामाइयं' ऐसी प्रतिज्ञा करता है वन् ! मैं समता या समभाव को स्वीकार करता हूँ । इस समता का विशेष स्पष्टीकरण आगे के दूसरे पद में किया गया है । उसमें कहा है कि मैं सावद्ययोग अर्थात् पाप व्यापार का यथाशक्ति त्याग करता हूँ। 'सामाइय' की ऐसी प्रतिष्ठा होने के कारण सातवीं सदी के सुप्रसिद्ध विद्वान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उस पर विशेषावश्यकभाष्य नामक अति विस्तृत ग्रन्थ लिखकर बतलाया है कि धर्म के अंगभूत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही सामाइय हैं । सच्ची वीरता के विषय में जैनधर्म, गीता और गांधीजी । । इसका अर्थ है कि हे भग सांख्य, योग और भागवत जैसी अन्य परंपरात्रों में पूर्वकाल से साम्यदृष्टि की जो प्रतिष्ठा थी उसी का आधार लेकर भगवद्गीताकार ने गीता की रचना की है । यही कारण है कि हम गीता में स्थान-स्थान पर समदर्शी, साम्य, समता जैसे शब्दों के द्वारा साम्यदृष्टि का ही समर्थन पाते हैं। गीता और आचारांग की साम्य भावना मूल में एक ही है, फिर भी वह परंपराभेद से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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