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जैन धर्म और दर्शन
(१) स्तुति, प्रार्थना, (२) यज्ञ यागादि कर्म । वैदिक मंत्रों एवं सूक्तों के द्वारा जो नानाविध स्तुतियाँ और प्रार्थनाएँ की जाती हैं वह ब्रह्मन् कहलाता है । इसी तरह वैदिक मंत्रों के विनियोग वाला यज्ञ यागादि कर्म भी ब्रह्मन् कहलाता है । वैदिक मंत्रों और सूक्तों का पाठ करनेवाला पुरोहित वर्ग और यज्ञ यागादि करानेवाला पुरोहित वर्ग ही ब्राह्मण है । वैदिक मंत्रों के द्वारा की जानेवाली स्तुति - प्रार्थना एवं यज्ञ यागादि कर्म की प्रति प्रतिष्ठा के साथ ही साथ पुरोहित वर्ग का समाज में एवं तत्कालीन धर्म में ऐसा प्राधान्य स्थिर हुआ कि जिससे वह ब्राह्मण वर्ग अपने आपको जन्म से ही श्रेष्ठ मानने लगा और समाज में भी बहुधा वही मान्यता स्थिर हुई जिसके आधार पर वर्ग भेद की मान्यता रूढ़ हुई और कहा गया कि समाजपुरुष का मुख ब्राह्मण है और इतर वर्ण अन्य अंग हैं । इसके विपरीत श्रमण धर्म यह मानता मनवाता था कि सभी सामाजिक स्त्री-पुरुष सत्कर्म एवं धर्मपद के समान रूप से अधिकारी हैं। जो प्रयत्नपूर्वक योग्यता लाभ करता है वह वर्ग एवं लिंगभेद के बिना ही गुरुपद का अधिकारी बन सकता है । यह सामाजिक एवं धार्मिक समता की मान्यता जिस तरह ब्राह्मण धर्म की मान्यता से बिलकुल विरुद्ध थी उसी तरह साध्यविषयक दोनों की मान्यता भी परस्पर विरुद्ध रही । श्रमण धर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय को सर्वथा हेय मान कर निःश्रेयस को ही एक मात्र उपादेय मानने की ओर अग्रसर था और इसीलिए वह साध्य की तरह साधनगत साम्य पर भी उतना ही भार देने लगा । निःश्रेयस के साधनों में मुख्य है अहिंसा । किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार से हिंसा न करना यही निःश्रेयस का मुख्य साधन है, जिसमें अन्य सब साधनों का समावेश हो जाता है । यह साधनगत साम्यदृष्टि हिंसाप्रधान यज्ञ यागादि कर्म की दृष्टि से बिलकुल विरुद्ध है । इस तरह ब्राह्मण और श्रमण धर्म का वैषम्य और साम्यमूलक इतना विरोध है कि जिससे दोनों धर्मों के बीच पद-पद पर संघर्ष की संभावना है, जो सहस्रों वर्षों के इतिहास में लिपिबद्ध है । यह पुराना विरोध ब्राह्मण काल में भी था और बुद्ध एवं महावीर के समय में तथा इसके बाद भी । इसी चिरंतन विरोध के प्रवाह को महाभाष्यकार पतंजलि ने अपनी वाणी में व्यक्त किया है। वैयाकरण पाणिनि ने सूत्र में शाश्वत विरोध का निर्देश किया है । पतजलि शाश्वत' - जन्म सिद्ध विरोध वाले अहि-नकुल, गोव्याघ्र जैसे द्वन्द्वों के उदाहरण देते हुए साथ-साथ ब्राह्मणश्रमण का भी उदाहरण देते हैं । यह ठीक है कि हजार प्रयत्न करने पर भी हि-नकुल या गो-यात्रा का विरोध निर्मूल नहीं हो सकता, जब कि
१. महाभाष्य २.४. ६ ।
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