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________________ भाषा-विचार १०७ अब भी एक प्रश्न तो बाकी रह ही जाता है कि क्या वैदिक-परंपरा में से श्रमण-परंपरा में उपोसथ या पोसह व्रत आया या श्रमण परंपरा के ऊपर से वैदिक परंपरा ने उपवसथ का आयोजन किया ? इसका उत्तर देना- किसी तरह सहज नहीं है । हजारों वर्षों के पहले किस प्रवाह ने किसके ऊपर असर किया इसे निश्चित रूप से जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। फिर भी हम इतना तो कह ही सकते हैं कि वैदिक-परंपरा का उपवसथ प्रेय का साधन माना गया है, जब कि श्रमण-परंपरा का उपोसथ या पोसह श्रेय का साधन माना गया है। विकास क्रम की दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य-जाति में प्रेय के बाद श्रेय की कल्पना आई है। यदि यह सच हो तो श्रमण-परंपरा के उपवास या पोसह की प्रथा कितनी ही प्राचीन क्यों न हो, पर उसके ऊपर वैदिक परंपरा के. उपवसथ यज्ञ की छाप है। भाषा-विचार महावीर समकालीन और पूर्वकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा से संबन्ध रखनेवाली अनेक बातों में भाषा-प्रयोग, त्रिदंड और हिंसा आदि से विरति का भी समावेश होता है । बौद्ध-पिटकों और जैन-आगमों के तुलनात्मक अध्ययन से उन मुद्दों पर काफी प्रकाश पड़ता है । हम यहाँ उन मुद्दों में से एक-एक लेकर उस पर विचार करते हैं: 'मझिम निकाय के 'अभयराज सुत्त' में भाषा-प्रयोग सम्बन्धी चर्चा है । उसका संक्षिप्त सार यों है—कभी अभयराज कुमार से ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा कि तुम तथागत बुद्ध के पास जाओ और प्रश्न करो कि तथागत अप्रिय वचन बोल सकते हैं या नहीं ? यदि बुद्ध हाँ कहें तो वह हार जाएँगे, क्योंकि अप्रियभाषी बुद्ध कैसे ? यदि ना कहें तो पूछना कि तो फिर भदन्त ! आपने देवदत्त के बारे में अप्रिय कथन क्यों किया है कि देवदत्त दुर्गतिगामी और नहीं सुधरने योग्य है ? ___ज्ञातपुत्र की शिक्षा के अनुसार अभयराज कुमार ने बुद्ध से प्रश्न किया तो बुद्ध ने उस कुमार को उत्तर दिया कि बुद्ध अप्रिय कथन करेंगे या नहीं यह बात एकान्त रूप से नहीं कही जा सकती। बुद्ध ने अपने जवाब में एकान्त रूप से अप्रिय कथन करने का स्वीकार या अस्वीकार नहीं करते हुए यही बतलाया कि अगर अप्रिय भी हितकर हो तो बुद्ध बोल सकते हैं परन्तु जो अहितकर होगा वह भले ही सत्य हो उसे बुद्ध नहीं बोलेंगे। बुद्ध ने वचन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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