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________________ उपोसथ-पौषध १०५ प्रश्नोत्तर से इतना तो स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ श्रावक के सामायिक व्रत के विषय में ( जो पौषध व्रत का ही प्राथमिक रूप है ) जो श्राजीवकों के द्वारा परिहासमय पूर्वपक्ष भग० श०.८, उ० ५ में देखा जाता है वही दूसरे रूप में ऊपर वर्णन किये गए अंगुत्तरनिकाय गत गोपालक और निर्ग्रन्थ उपोषथ में प्रतिबिंत्रित हुआ जान पड़ता है । यह भी हो सकता है कि गोशालक के शिष्यों की तरफ से भी निर्ग्रन्थ श्रावकों के सामायिकादि व्रत के प्रति आक्षेप होता रहा हो और उसका उत्तर भगवती में महावीर के द्वारा दिलाया गया हो । आज हमारे सामने गोशालक की आजीवक - परम्परा का साहित्य नहीं है पर वह एक श्रमण परम्परा थी और अपने समय में प्रबल भी थी तथा इन परम्पराओं के आचार-विचारों में अनेक बातें बिलकुल समान थीं । यह सब देखते हुए ऐसा भी मानने का मन हो जाता है कि गोशालक की परम्परा में भी सामायिकउपोषथादिक व्रत प्रचलित रहे होंगे । इसीलिए गोशालक ने या उसके अनुया यियों ने बुद्ध के अनुयायियों की तरह निर्ग्रन्थ-परम्परा के सामायिक- पौषध आदि व्रतों को निःसार बताने की दृष्टि से उनका मखौल किया होगा । कुछ भी हो पर हम देखते हैं कि महावीर के मुख से जो जवाब दिलाया गया है वह बिलकुल जैन मंतव्य की यथार्थता को प्रकट करता है । इतनी चर्चा से यह बात सरलता से समझ में आ जाती है कि श्रमण-परंपरा की प्रसिद्ध तीनों शाखाओं में पौषध या उपोषथ का स्थान अवश्य था और वे परंपराएँ आपस में एक दूसरे की प्रथा को कटाक्ष-दृष्टि से देखती थीं और अपनी प्रथा का श्रेष्ठत्व स्थापित करती थीं । ( ३ ) संस्कृत शब्द 'उपवसथ' है, उसका पालि रूप उपोसथ है और प्राकृत रूप पोसह तथा पोसध है । उपोसथ और पोसह दोनों शब्दों का मूल तो उपवसथ शब्द ही है । एक में व का उ होने से उपोसथ रूप की निष्पत्ति हुई है, जब कि दूसरे में उ का लोप और थ का ह तथा व होने से पोसह और पोसध शब्द बने हैं। आगे पालि के उपर से अर्ध संस्कृत जैसा उपोषथ शब्द व्यवहार में आया जब कि पोसह तथा पोसध शब्द संस्कृत के ढाँचे में ढलकर अनुक्रम से पौषध और प्रौषध रूप से व्यवहार में आये । संस्कृत प्रधान वैदिक परम्परा में, यद्यपि उपवसथ शब्द शास्त्रों में प्रसिद्ध है तथापि पालि उपोसथ के उपर से बना हुत्रा उपोषथ शब्द भी वैदिक लोक व्यवहार में व्यवहृत होता है । जैन-परम्परा जब तक मात्र प्राकृत का व्यवहार करती थी तब तक पोसह व्यवहार में रहे पर संस्कृत में व्याख्याएँ लिखी जाने के व्याख्याकारों ने पोसह शब्द का मूल बिना जाने ही उसे 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only तथा पोसध शब्द ही समय से श्वेताम्बरीय पौषध रूप से संस्कृत www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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